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Back to Ghar verse
रस चूसे कलियों-फूलों का यह सारा दिन-भर, रात को लेखा-जोखा करती बैठ समेटे पर। मधुमक्खी का काम है मीठा शहद कली का लेकर , उससे भरते रहना अपने छत्ते का घर-घर ||
कल तक पत्ते हरे भरे थे आज लगी पतझर , कब तक हरित की प्रतीक्षा में रहोगे यूँ आतुर। पतझर आई है तो हरे भी लौटेंगे, रे मन, जीवन नाम गति का यूँ न बैठ बिसूरो घर ||
हल जोत के हठ और नरमी बन जा तू हलधर , खुले खेत में हल चला ले बन कर मस्त-कलंदर | बीज प्रेम का क्यारी-क्यारी , पंक्ति-पंक्ति बो ले , नेक सुहानी फसलें काट के भर ले अपना घर ||
बदल भैया बरसोगे जब डुग्गर देश में जाकर, मिलना उससे जिसका नाम है केहरि सिंह ‘मधुकर’ | मेरी वाह-वाह देकर उसको ‘डोली’ कविता पर, उसका उत्तर बिना सुने ही लौट आना तुम घर ||
यह प्रभात की बेला लौ के अधखुले है दर , आद्य कुंवारी को घूँघट खुलने का रहता डर | देखे मुझे जाने क्या बोली मारे मेरा कन्त, इसी लिए शर्माती आती हु अपने घर
बादल तुमसे अर्ज़ है इतनी बरसो तुम खुल कर, बाहर साजन जा न पाएं छोड़ के मुझ को घर | पर जो उसे लौटना घर हो रुक जाना पल भर, अटक न जाये कहीं, राह में, पहुँचे सीधे घर ||
मेरी जान ! बरसना है तो बरसो बन बौछार, झिजक, क्लेश मिटा दे सारे तू निर्भय होकर | घोल दे हर शंका, बह जाने दे हर संशय को, चलो डुबो दें कसक भरे, गहरे गहवर में घर ||
ना मैं मियाँ, राजपूत ना, ना पंडित ना ठक्कर, मेरी कोई जात नहीं, ना भोट ना मैं गुर्जर | नाम है धाकड़,काम है धाकड़, मेरी राह भी धाकड़, इस दो-मुंही दुनिया अंदर कोई न मेरा घर ||
‘राजपूत-स्कूल’ में पढ़ते ,जम्मू के अंदर बेली राम हुआ करते थे हिस्ट्री के मास्टर | ऐसा सबक पढ़ाया उन्होंने इस जीवन का सुन्दर भूला नहीं, तभी बन पाया दिव्य मेरा यह घर ||
सबको एक सामान धरा पर देता परमेसर, राजा रंक जिनवर पंछी, निर्बल ज़ोरावर | चरसी और नशेड़ी को भी देता दिन प्रतिदिन, चौबीस घंटे भेदभाव न उसके लंगर-घर ||
मानव जैसे-जैसे चलता साथ चले अम्बर क्षितिज की दूरी चलते-चलते मिटती नहीं मगर | द्रिष्टी और पृथ्वी के सम पर क्षितिज बना ही रहता, इस तरह जो चले उम्र भर कभी न पहुँचे घर ||
पृथ्वी की गोलाई से ही क्षितिज बने हैं, मगर, हद इसकी एक और भी होती, मानुष की नज़र | पृथ्वी की गोलाई को तो बदल नहीं हम सकते , सीमा क्षितिज की बदल सकेंगे बनवा ऊंचा घर ||
मत कर निंदा कुंज की ये तो लम्बा करे सफर, विशराम-स्थल की खोज में चाहे थक जाते है पर| खास जगह ही बने घोंसला , ममता का बंधन , लम्बे सफर पे फिर उड़ जाना छोड़ के अपना घर
जीवन एक पतंग की नांईं, छूती है अम्बर, परवाह नहीं जो मांझा देता चीरें हातों पर। कस के रख तू बिना ढील के, मांझा बहुत है तेज़, यदि लड़ाने पेंच चढ़ा कर लाने वापिस घर ||
मानुष इक दिन करने लगा था अल्लाह से अकड़, कहे मैं सब से सार को जानूं, मैं ज्ञानी चातुर | अल्लाह पूछे क्या है तेरा बोलो मुझसे रिश्ता, तब मानुष सर नीचे कर के आया वापिस घर ||
तुलसी पिछवाड़े है रोपी आँगन बीच है ‘बड़’ मन के भीतर कपट भरा है दागा न उस से कर | ‘वह’ पहचाने सब को , जाने समझ हर इक चाल , तुलसी, पीपल, जप-तप से तो आता नहीं वह घर ||
जीवन क्या है ? घास का तिनका, मैं सोचूँ अक्सर, अथवा फूल क्यारी का है रंग बहुत सुन्दर | एक हवा के झोंके से ही बिखरे फूल और पात, जिस घर उगते फूल वो बनता अजब अनोखा घर ||
ईश्वर ने है दिए रात को अनगिन नयन हज़ार, जब डूबे है सूरज दुनिया सो जाती अक्सर। लौ की प्यासी दुनिया को न मिलते प्रेम-सपन, लालटेन पाकर अँधियारा, जगमग करे है घर।|
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