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मेरी पूजा के तोहफों का किया नहीं आदर, इसी लिए चिंता व्यापी है मेरे चित अन्दर | सपनों में तुम आकर मेरे , तंग बहुत करती हो, इसी तरह से किया है तुमने मेरे दिल में घर ||
व्यक्त मई जो भी करना चाहूँ संधे नहीं अक्षर, सोच तो दिव्या है मेरी किन्तु अक्षर है अक्खड़ | माँ बोली की सीमाओं ने कंठ किया अवरुद्ध , भीतर कैसे जॉन यह है तालाबंद इक घर |
दानी चतुर पांखडी करते दान बहुत मगर, वक़्त पड़े तो मूत्र न पाते ज़ख्मो के ऊपर | सोचें यदि यह दान से उनके पाप मिटेंगे सारे , परमेश्वर से कब भूला है साथी किसी का घर ||
आस-निराश न समझे मेरा मनवा लाल-बुझक्कड़, इस देती है मीठा चुम्बन दूजी जड़ती थप्पड़| इक झगड़ालू लड़ती, दूजी आलिंगन में बांधे , दोनों के जब तार जुड़े तब संभला रहता घर ||
नहीं हो एक इकाई , मात्र हो तुम एक सिफर, गांठ-बांध ले बात यह मेरी करता चल सफर | राशि बनती एक इकाई शुन्य जो संग जुड़े , शुन्य अकेला उसकी तरह जिसका कोई न घर ||
हल जोत के हठ और नरमी बन जा तू हलधर , खुले खेत में हल चला ले बन कर मस्त-कलंदर | बीज प्रेम का क्यारी-क्यारी , पंक्ति-पंक्ति बो ले , नेक सुहानी फसलें काट के भर ले अपना घर ||
सपनो के आकाश में साथी नीचे तनिक उतर , हाथ सलामत तेरे इनसे काम ज़रा तू कर | बिन उद्यम के सपने तो साकार नहीं है होते , पुरुषार्थ साकार है करता सपनो वाला घर ||
लोग कह रहे मैं जियूँगा सौ-सौ वर्षों भर, माथे की रेखाओं पर ही करता है निर्भर। पर मैं करूँ दुआएं चाहे दो पल जीवन पाऊँ , किन्तु हों मदमस्त सभी पल, मधुशाला हो घर ||
कहे वेदना कलाकार से सुन मेरे मित्र , निपट अकेली रेखाओं से बना रहा चित्र। तेरे चित्रों में जीवन की रंगत तब झलकेगी , जब मेरे हित खाली रखोगे तुम मन का घर ||
वह क्या प्रीत-डगर का राही जिसके मन में डर, उससे प्रीत निभेगी कैसे सख्त न जिगर। दिल-ओ-जान की राह के कांटे चुनने पड़ते खुद, चुभन से डरते रहने पर कंटीला बनता घर ||
इन्सां बड़ा खिलाड़ी बनता खेल-खेल मगर , वाह-वाही की खातिर हर पल बनता है एक्टर। थपकी अच्छी होती केवल वही जो हो स्वाभाविक , वारना उसका घर बन जाता बिलकुल सिनेमाघर ||
रुपया-पैसा पास नहीं मैं गीतकार फक्कड़, मेरे पास न लिखने हेतु पेंसिल और पेपर। सोच रहा मैं पहले थोड़े फ़िल्मी गीत लिखूं, ताकि थोड़े पेंसिल-काग़ज़ ला पाऊँ मैं घर ||
मंदिर-मस्जिद मैं न जाऊँ, इन्सां मैं अक्खड़ , हिन्दू समझे नास्तिक हूँ मैं मुस्लमान काफ़िर। नाम वियोगी इश्क़ हुआ है मुझको कविता संग , इसी लिए कविता देवी को पूजन अपने घर ||
जब भी काँपे रूह तुम्हारी जपता जा हर-हर , अल्लाह-अल्लाह राम-राम कोई भेदभाव न कर | सच्चे मन से जो सोचोगे पूरी होगी बात, जिसमें चित्त लगाओ, वही रूह का घर ||
ढोली ढोल बजा कर कहता कर ले तू ‘जातर’, संग मसान के खेल-कूद ले नाच ताल के ऊपर | मैं तो डग-डग थाप लगाऊँ, जो भी मन को भाए, नाच ले , या अनमना बैठ धुन्धुआता रह तू घर ||
तर्क और तकरार का मन में भरा रेत-सागर, इस पर चलने से होता है मर जाना बेहतर। अगणित पड़ जाते हैं ऐसे रूह के ऊपर , डगर छोड़ कर रुकना पड़ता किसी-किसी के घर ||
चिंता की रेखा छाए मानव के माथे पर, हर पल उसके मन में रहता भयभीति का डर | मौत से पहले उसे निगलता पशु बनैला बन, रसता -बसता हँसता-गाता जंगल बनता घर||
नक़्शे सोचो, रूप विचारो सुन्दर घर के, पर, अपना नाम लिखा लो चाहे ईंट-ईंट ऊपर | खूब सजाओ खूब संवारो इसका कोना-कोना, लोग देख कर बरबस बोलें, कितना सुन्दर घर ||
औरत ज़ात तो कैद पड़ी है हर घर के अंदर, यह हालत अब नहीं रहेगी बहुत देर तक पर। जिस घर में वह कैदी बनती होती वह प्रलय, जिस घर रहती देवी बन कर बस बसता वह घर ||
पुरखों के हाथों से निर्मित तोड़े यह मंदिर, अब लोगों में सोच भोथरी समां गई भीतर | निज सभ्यता की निंदा का फैल चूका फैशन, रहते मौन जो पूछ ले कोई कौन-सा उनका घर ||
सच्ची कथा नहीं रामायण सुनी थी मैंने ख़बर, महाभारत भी अफ़्साना है कहते कई चतुर। झूठी-सच्ची मैं न जानूं सुन्दर बहुत कथा, इसी लिए चर्चित हैं दोनों आज सभी के घर ||
बदल भैया बरसोगे जब डुग्गर देश में जाकर, मिलना उससे जिसका नाम है केहरि सिंह ‘मधुकर’ | मेरी वाह-वाह देकर उसको ‘डोली’ कविता पर, उसका उत्तर बिना सुने ही लौट आना तुम घर ||
हाथ जोड़ के वंदन करना गए जो जम्मू नगर, शीश झुका कर उसकी मिट्टी का करना आदर। रक्त से इसको सिंचित करते बेटे शेर जवान, बेशक बंजर कहलाता है पर वीरों का घर ||
जीना दूभर हो जाए जब बन जा तू निडर , हिम्मत टूट गई तो समझो रहे न खोज-ख़बर। काम पे जाते बेटे को यह कहती निर्धन माँ, लौट के तुम आ जाना बेटा अपनी माँ के घर ||
रूप तेरा यह रहने न दे सुधबुध रत्ती भर, तुझे बैठा कर मेरी सजनी सर और आँखों पर। ऐसा मेल-मिलाया मैंने शिव-गौरी भी उचके , जिस शब तूने रात गुज़री पहली मेरे घर ||
घर होता है धर्म का मंदिर, मंदिर प्रेम का घर, मंदिर धर्म का घर होता है-घर प्रेमिल मंदिर। प्रेम और घर समधी होते हैं मंदिर प्रेम भी समधी, प्रेम-प्यार से धर्म निभा कर मंदिर बनता घर ||
प्रेम की किसने थाह है पाई प्रीत गहन-सागर, नफ़रत की पैमाईश भी न आसां होती पर। इतना भेद तो इनका समझ में सबके आता है, नफ़रत घर को तोड़े लेकिन प्रीत बनाती घर ||
बाहर हँसती भीतर-भीतर चुभते हैं खंजर, पुच-पुच करती चुम्मा देकर ख़ुश करती है पर। जीवन के संघर्ष और तिस पर घुन-खाया उद्यम, बात समझ न आए तो फिर ढहता जीवन-घर ||
डोगरी की बदहाली पर है मुझ को बहुत फिकर, न कोई पढ़ता-सुनता न ही करता कोई ज़िकर। शायर इसके इक-दूजे से झिझके-ठिठके रहते, बिना दौड़ के बेदम होकर बैठे रहते घर ||
कहे यदि वह मुझे कि- तेरी कविता है सुन्दर, पूजूंगा उसको रख अपना माथा पैरों पर। नहीं थकूंगा लेते उसके गोरे गालों का चुम्बन, कर-कमलों से पकड़ के उसको ले आऊँगा घर ||
मानव अक्खड़ होते हुए भी होता बहुत चतुर, पड़े ज़रूरत तो कर लेता हृदय को पत्थर। इसकी जिजीविषा की महिमा है वेदों में वर्णित, वक्त पड़े तो त्याग दे बिन-झिजके यह अपना घर ||
माथे की तू पोंछ ले तू भृकुटि, चेहरे जऐ संवर, क्रुद्ध रूप यह देख तुम्हारा, सेहमा सारा घर। नहीं भूलना सीखे यह मेरी ‘खींचे रखना डोर’, प्यार और अनुशासन ही मिल कर सुखी बनाते घर ||
मैं नौसिखिया, और कठिन है जीवन का सफर, मेरे बस में रूह क्या होगी, बस में नहीं है धड़ | मुझे ज़िंदगानी से ना नफरत ना प्यार, इसीलिए शायद है मेरा बिलकुल खाली घर ||
‘बस इतना ही?’ मुझे चिढ़ाए तू यह कह-कह कर, जितनी पीड़ा भोगी मेरी उतनी सख्त पकड़ | ढीली लगे तो सारे जग का दर्द संभाल के रखना और उषे ले रूह मेरी तू, आना नेरे घर ||
सुन विलाप हीर का हरगिज़ ठट्ठा-हँसी न कर, बारिसशाह का किस्सा सुनकर सिसकी आहें भर | इक -दूजे को तरसें रहें, दुनिया करे अलग, शोक भरे दुखांत यह किस्से,शोकाकुल है घर ||
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