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जब रूठे तू और फेर ले अपनी तीर-नज़र , सौ-सौ बिजली तड़तड़ करती गिरती है दिल पर। सीने में छाए बेचैनी जीवन मुझे चिढ़ाए , यूँ लगता है संशय में आंहें भरता यह घर ||
कब से आतुर बैठा हूँ मै तुझसे नेह लगाकर, और विलग न रह पाउँगा दशा हुई कातर | मुझे बता प्रियतमा ऐसे प्रेम निभेगा कब तक , छोड़ विछोह , आ चलो बनाएँ रास्ता-बस्ता घर ||
आस-निराश न समझे मेरा मनवा लाल-बुझक्कड़, इस देती है मीठा चुम्बन दूजी जड़ती थप्पड़| इक झगड़ालू लड़ती, दूजी आलिंगन में बांधे , दोनों के जब तार जुड़े तब संभला रहता घर ||
माथे की तू पोंछ ले तू भृकुटि, चेहरे जऐ संवर, क्रुद्ध रूप यह देख तुम्हारा, सेहमा सारा घर। नहीं भूलना सीखे यह मेरी ‘खींचे रखना डोर’, प्यार और अनुशासन ही मिल कर सुखी बनाते घर ||
एक दिन मई दुखियारा पहुंचा शिवजी के मंदिर , मगन खड़ा था शिव-अर्चन में साधु एक्कड़ | मई बोलै विपता का मारा सीख दीजिये कुछ , बोलै वह, क्यों आये यहाँ पर तेरा मंदिर घर ||
खीझ न मेरी अम्मा न तू ऐसे रूठा कर , बतलाता हूँ कहाँ रहा मई फिरता यूँ आखिर | एक गौरेया घर थी बुनती उसको झाड़ा हैरान , रहा देखता देर लगी यूँ मुझे लौटते घर ||
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