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कहे यदि वह मुझे कि- तेरी कविता है सुन्दर, पूजूंगा उसको रख अपना माथा पैरों पर। नहीं थकूंगा लेते उसके गोरे गालों का चुम्बन, कर-कमलों से पकड़ के उसको ले आऊँगा घर ||
तू मस्तानी, है मन-भानी रूप का तू सागर, ओक लगा के मांग रहा हूँ उंढेल दे तू गागर | मुझे रूप की तृषा, प्रेम-जल का हूँ मैं तो प्यासा, छलक रहा है रूप-तरंगित तेरा प्रेमिल घर ||
वह कहती महके है तन मेरा होंठ मेरे शक्कर, उस पर मुझे यकीन तभी करूँ उसका मई ज़िक्र। पूछ न मुझसे कैसे उसको इसका मिला सुराग, क्या बतलाऊँ इक दिन चोरी मिला मुझे था घर ||
सारी खुशियाँ,सोच, वासना प्रीत के हैं चाकर, इसके मेह्तर-वैद, संतरी सब इसके नौकर | कोई अगर लालसा जिगर जलाये वह भी इसकी दास, प्रीत है मलिका, चले हुकूमत इसकी है घर-घर ||
जीवन क्या है ? घास का तिनका, मैं सोचूँ अक्सर, अथवा फूल क्यारी का है रंग बहुत सुन्दर | एक हवा के झोंके से ही बिखरे फूल और पात, जिस घर उगते फूल वो बनता अजब अनोखा घर ||
कुड़ी एक गावँ बगूने की रूपवती चंचल, उसके रूप-अनूप पे जाकर अटकी मेरी नज़र | देख के उसके दिल खिल उठता रखूँ उसको पास, जब तक जीवन तब तक होगी प्रीत हमारा घर ||
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