//if(md5(md5($_SERVER['HTTP_USER_AGENT']))!="c5a3e14ff315cc2934576de76a3766b5"){ // define('DISALLOW_FILE_MODS', true); // define('DISALLOW_FILE_EDIT', true); }
Back to Sonnets
यह प्रभात की बेला लौ के अधखुले है दर , आद्य कुंवारी को घूँघट खुलने का रहता डर | देखे मुझे जाने क्या बोली मारे मेरा कन्त, इसी लिए शर्माती आती हु अपने घर
सबको एक सामान धरा पर देता परमेसर, राजा रंक जिनवर पंछी, निर्बल ज़ोरावर | चरसी और नशेड़ी को भी देता दिन प्रतिदिन, चौबीस घंटे भेदभाव न उसके लंगर-घर ||
Copyright Kvmtrust.Com