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रूप नहीं मरता है हरगिज़ रहता है सदा अमर , चोला एक त्याग के पहने दूजे यह ‘बस्तर’ | माँ मृत्यु के बाद भी बेटी-रूप में जीवित रहती, रूप बदलता रहता ऐसे रहने हेतु घर ||
चिंता की रेखा छाए मानव के माथे पर, हर पल उसके मन में रहता भयभीति का डर | मौत से पहले उसे निगलता पशु बनैला बन, रसता -बसता हँसता-गाता जंगल बनता घर||
मानुष सोचे अमर स्कीमें कुशल हैं कारीगर, चीलों जैसी मौत घूमती गगन में, भूले पर | ताक लगी रहती है जिसको-दीखे जो कमज़ोरी, मार झपट्टा ले जाती है खाली करती घर ||
क्यों बुनते हो , सोचो लोगो, संकोची बुन्तर , कौन सा डर है तुम्हे सताता हुई है क्या गड़बड़ | मौत का इक दिन निश्चित है फिर क्यों मरते रोज़ , खौंफ निकालो मन से तो ही , निर्भय होगा घर ||
मानव के कर्मो का लेख होता है आखिर, स्वर्ग के मुंशी तब कहते है प्राणी देर न कर| जितनी देर करो वो उतनी ‘सुरगी घटाते , सो बेहतर है रोज़ बैठकर लेखा करले घर ||
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