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मानव जैसे-जैसे चलता साथ चले अम्बर क्षितिज की दूरी चलते-चलते मिटती नहीं मगर | द्रिष्टी और पृथ्वी के सम पर क्षितिज बना ही रहता, इस तरह जो चले उम्र भर कभी न पहुँचे घर ||
पृथ्वी की गोलाई से ही क्षितिज बने हैं, मगर, हद इसकी एक और भी होती, मानुष की नज़र | पृथ्वी की गोलाई को तो बदल नहीं हम सकते , सीमा क्षितिज की बदल सकेंगे बनवा ऊंचा घर ||
एक टुकड़ा मैं रोटी मांगू सोने से बस नुक्कड़ , इक पल मांगू मुस्काने को , इस धरती के ऊपर | रोने का एक पहर मैं मांगू , लोटा एक शराब, ओक से रह-रह पीड़ा चलके , यही है जीवन घर ||
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