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वह क्या प्रीत-डगर का राही जिसके मन में डर, उससे प्रीत निभेगी कैसे सख्त न जिगर। दिल-ओ-जान की राह के कांटे चुनने पड़ते खुद, चुभन से डरते रहने पर कंटीला बनता घर ||
चिंता की रेखा छाए मानव के माथे पर, हर पल उसके मन में रहता भयभीति का डर | मौत से पहले उसे निगलता पशु बनैला बन, रसता -बसता हँसता-गाता जंगल बनता घर||
झूठ , फरेब ,होड़, षड़यंत्र होते हर दफ्तर, खींचातानी, ताक-झांक, हेरा-फेरी और डर | यह कूड़ा गर घर ना लाओ, रखो इससे पाक, छोटे-बड़े कुशल खुश होकर रहते ऐसे घर |
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