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वह क्या प्रीत-डगर का राही जिसके मन में डर, उससे प्रीत निभेगी कैसे सख्त न जिगर। दिल-ओ-जान की राह के कांटे चुनने पड़ते खुद, चुभन से डरते रहने पर कंटीला बनता घर ||
जब भी काँपे रूह तुम्हारी जपता जा हर-हर , अल्लाह-अल्लाह राम-राम कोई भेदभाव न कर | सच्चे मन से जो सोचोगे पूरी होगी बात, जिसमें चित्त लगाओ, वही रूह का घर ||
प्रीत अगर है मुझसे सच्ची दुनिया से न डर , आओ रसमें तोड़ दें सारी , ले ये हाथ पकड़ | तू पौंछ ले आँसू अपने यजोपवीत मैं तोडूं, चिंता न कर हाथ थाम ले चल तू मेरे घर ||
अगर देखनी चाहो लीला प्रेम की , बनो निडर, डरते-डरते कदम न रखना प्रेम के इस मंदिर | लाज प्रेम की रखनी है तू इसे लहू से सींच , प्यार खून से रंगे न जब तक बनता नहीं है डर ||
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