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मैं बांधूंगा सेहरा जिसमें आशाओं की झालर, बाराती बारात में मेरी वायदों के लश्कर | प्रीत के मैं पंडित बुलवाऊँ, मंत्र प्रेम के सुनने, रक्त का मैं सुन्दर सजा दूँ तेरे माँग-घर ||
एक ज़िद्दी और चंचल बालक चढ़ा जो पीपल पर , अम्मा जा तू, न लौटूंगा साँझ ढले तक घर | ठोकर लगी जो अनजाने में हुआ वह लहूलुहान , ज़ोर ज़ोर से रोते बोला ले चल अम्मा घर
घर का लोभ तो होता है हर लालच से ऊपर, घर की खातिर दुनिया लेती दुनिया से टक्कर | खून-कत्ल होते भाइयों में इसके ही ख़ातिर , हर कोई इसकी रक्षा करता , ऐसी चीज़ है घर ||
बाबुल कहता है बैठ लाड़ली डोली के अंदर , यह वर तेरा , ईश्वर तेरा , वो घर अब मंदिर | बिटिया पूछे कब लौटूंगी बापू अपने घर , बाबुल बोले आज से बेटी वो ही तेरा घर ||
प्रीत अगर है मुझसे सच्ची दुनिया से न डर , आओ रसमें तोड़ दें सारी , ले ये हाथ पकड़ | तू पौंछ ले आँसू अपने यजोपवीत मैं तोडूं, चिंता न कर हाथ थाम ले चल तू मेरे घर ||
घर की शोभा बने गृहस्ती और उसके अंदर आशाओं के बीजों से ही फूटे प्रेमांकुर | यह है क्यारी तू माली है सींच गुढ़ाई कर, मधुर सुवासित गुलदस्तों से सजेगा तेरा घर ||
झूठ , फरेब ,होड़, षड़यंत्र होते हर दफ्तर, खींचातानी, ताक-झांक, हेरा-फेरी और डर | यह कूड़ा गर घर ना लाओ, रखो इससे पाक, छोटे-बड़े कुशल खुश होकर रहते ऐसे घर |
अगर देखनी चाहो लीला प्रेम की , बनो निडर, डरते-डरते कदम न रखना प्रेम के इस मंदिर | लाज प्रेम की रखनी है तू इसे लहू से सींच , प्यार खून से रंगे न जब तक बनता नहीं है डर ||
दर-दर भटकूँ पूर्व, पश्छिम,दक्षिण, और उत्तर, मुझसे कहीं छुपा रखे थे दाता ने अक्षर | गली-गली मैंन भटका, कोमल पंक्ति मिली ना एक, मिली अंततः मुझे अचानक खड़ी वो मेरे घर ||
इच्छाओं का त्याग करूँगा, प्रण किया अक्सर, इसी तरह यह प्रन भी मेरा है तो इच्छा, पर | अर्थ यह गहरे शब्दों के, मकड़जाल हैं बनते, घर को जब त्यागो तब बनती यही लालसा घर ||
जैसे झरने ढूंढे नदियां ,नदियां दूँढे सर, जैसे हवा आसमानों में खोजे निज दिलबर | कोई यहाँ नहीं एकाकी सभी हैं जोड़ीदार, प्रीत में फिर क्यों मिल न पाते तेरे मेरे घर ||
मत कर निंदा कुंज की यह तो लम्बा करे सफर, विश्राम-स्थल की खोज में चाहे थक जाते हैं पर | ख़ास जगह ही बुने घोंसले , ममता का बंधन , लम्बे सफर पे फिर उड़ जाना छोड़ के अपना घर ||
कच्चा धागा प्रीत, कह गए रामधन कविवर, यही सूत जब कसने लगता देता लाख फ़िक्र | पया रामधन जी मुझ को दे दो ऐसी सीख, अगर बंधी न डोर प्रीत की कैसे बनेगा घर ||
प्रीत मचा देती है कैसी आंधी और झक्कड़, मैं न समझूँ प्यार- व्यार को मै नादां अनगढ़ | मुझे बता दो लिख कर, क़ैसे लिखते हैं चिट्ठी, ख़ुद डाकिया बन कर दूँगा चिट्ठी तेरे घर ||
न आते न बुलाते न चिट्ठी- पत्तर , हाल- हवाल न पूछें न ही लेते कोई खबर | मैं लजालू क्या बतलाऊँ, कितनी उनकी चाह, स्वाद खून का लगा शेरनी भूखी रखी घर ||
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