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मंदिर-मस्जिद मैं न जाऊँ, इन्सां मैं अक्खड़ , हिन्दू समझे नास्तिक हूँ मैं मुस्लमान काफ़िर। नाम वियोगी इश्क़ हुआ है मुझको कविता संग , इसी लिए कविता देवी को पूजन अपने घर ||
कहे यदि वह मुझे कि- तेरी कविता है सुन्दर, पूजूंगा उसको रख अपना माथा पैरों पर। नहीं थकूंगा लेते उसके गोरे गालों का चुम्बन, कर-कमलों से पकड़ के उसको ले आऊँगा घर ||
एमर्सन को वेद ज्ञान क्या? कहते प्रोफेसर उसकी लिखी कविता ‘ब्रह्मा’ एक बार तो पढ़ | वे कहते ईसाई विधर्मी गीता पाठ क्यों करता , मैं कहता वह सार ज्ञान का, और इक सांझा घर ||
कविता को अब कहाँ मिलेंगे ऐसे बहते सरोवर, कालिदास और षैली ग़ालिब कविता स्रोत अमर। एक वियोगी नामक नादां, नए सुरों में खोया, बहने की तरकीबें सोचे बैठे-ठाले घर।।
ले यह भेंट और दे चरणामृत दाता मेरे ठाकुर, मैं चढ़ावा लेकर आया अपनी कविता ‘घर’ | ना मैं लाया भेंट रूपया ना ही मांगू दौलत, मेरी भेंट यह लेकर बाँट आना घर-घर ||
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