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नैय्या है कमज़ोर और लहरें आई है ऊपर , धारा में है तेज़ नुकीली चट्टानें-पत्थर। घाट पे नर्तन करती पीड़ा, घुंगरुं उसके छनकें , आशाओं का मांझी , बोलो कैसे पहुँचे घर ||
इंतज़ार के पल लगते हैं भारी वर्षों पर प्रति-पल भरता अनगिन चिंता ह्रदय के भीतर | मधुर-मिलन के साल बीतते आँख झपकते ही , इंतज़ार में तिल-तिल करके जलता अपना घर ||
हश्र क्या होगा तन का तेरे, तुझ पे है निर्भर, एक समय आता हो जाता जब बद से बदतर | पीड़ा की दौलत से तब भर लेना तुम तिजोरी, पीड़ा की बुनियाद पे बनता रसता-बसता घर ||
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