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बिन तेरे मैं साथी, भटकूं दुनिया में दर-दर , मेरा कोई हमदम न था तरसा जीवन भर | चाहत-संशय-तर्क अनगिनत देह में रहे समाये , और नसों मैं हुए धमाके ढह गया मेरा घर |
सुन विलाप हीर का हरगिज़ ठट्ठा-हँसी न कर, बारिसशाह का किस्सा सुनकर सिसकी आहें भर | इक -दूजे को तरसें रहें, दुनिया करे अलग, शोक भरे दुखांत यह किस्से,शोकाकुल है घर ||
एक पैंतरा सही पड़ा तो इतना गर्व न कर , जाने उल्टा पड़े दूसरा उसका ध्यान तू कर | ख़ुशी-गम में, नहीं मनाना अधिक ख़ुशी या गम , समता और संतुलन से बनता सहज सजीला घर ||
रंगमंच जो घर मेँ हो तो फिर उसके अंदर, भेदभाव की दीमक लगती है और व्यापे डर | ऊपर-ऊपर प्रेम दिखावा भीतर विश्वास , इसी तरह जर्जर हो जाते है खड़े खड़े ही घर ||
प्रीत का मै देवालय बना कर आया था भीतर , आशाओं का डीप जला तू प्रीत बना मंदिर| पर एक देवी प्रीत की मलिका बोली कर्कश बोल, न ये मंदिर तेरी खातिर न हे तेरा घर ||
इंतज़ार के पल लगते हैं भारी वर्षों पर प्रति-पल भरता अनगिन चिंता ह्रदय के भीतर | मधुर-मिलन के साल बीतते आँख झपकते ही , इंतज़ार में तिल-तिल करके जलता अपना घर ||
छलिया क्षितिज उम्मीद जगा कर डाले सौ चक्कर , छल मरीचिका और बनाती पीड़ा को दुःख कर | जलते-तपते मरुस्थलों मेँ इंसा चलता जाता , उफ़क की दूरी काम न होती आस न आती घर ||
आस सुरो की मारक-धाकड़ घेरे है मिल कर , पकड़ दुनाली चले शिकारी जब बोले तीतर | मौत के डर से कैसे कोई अपनी उमंगें छोड़े , ताल-सुरो का गाला जो घोंटे , पिंजरा बनता घर ||
तेरी नज़र मेँ तेज़ और तीखे और पैनी नश्तर , चुभते है जब तो रहता है इनका मुझे न डर | कसक सुहानी और मद- महकी यह देते मुझको , तभी इन्हे मै बिना निकले लेकर आया घर||
शिकार यार बनाया झेले ज़हरीले खंजर , दिल का मॉस खिलाया उसके टुकड़े टुकड़े कर| पर उसने ये चुग्गा चुग कर ऐसी भरी उड़ान, खेत पराये जाकर बैठा, बैठा दूजे घर ||
घर हौंसला होता है बच्चे मांगे बहियन पर, पंख मिले तो भरे उड़ाने बच्चे गिर फर-फर| बैठे अकेले अम्मा रोती , रहता बाप उदास, नीड बनाते बच्चे अपना, कर के सूना घर
मज़दूर के पैसे लेके जाता ठेके पर, घर आकर फिर गर्जन करता यह कंजरी का घर | प्रेत नशा, न दिखते उसको बच्चे भूखे-प्यासे, घर घोंसला होता है जो समझे उसको घर ||
शौक अनोखा पाला है गर मन मंदिर के अंदर, साध बना लो उसको अपनी सब साधों से ऊपर | भूख और लोभ को दिल से त्यागो, उसकी राह ना छोड़ो, मिट जाये हस्ती तेरी या उजड़े तेरा घर ||
एक पण्डितायन बाली विधवा उसका भी था घर, उसके तन की तपन-जलन अब दूर न होती पर | घर वह उस अभोल का दमघोटूं एक जेल, तभी कहूं मई तोड़ ज़ंजीराज नया बसा ले घर ||
किसी ने पूछा कितना अनुभव कितनी तेरी उम्र , अभी किया न लेखा-जोखा हुई बहुत गड़बड़ | मानव उमरे ही गिनता है उस पल जब के फिर , कुछ न गिनने को बचता है बैठ अकेले घर ||
एक ओर महापुरुष विराजे दुनिया के अंदर, ओर दूसरी तरफ जुगाली करते बैठे जिनावर | यह मानुष रस्सी का सेतु इस खाई के ऊपर , पल भर न निश्चित हो पाए कहाँ है उसका घर ||
मै पागल था दुनिया ने भी समझा , की न खातिर, मैंने भी सम्मान दिया न , किया न उसका आदर | देता क्या आदर उसको जो समझे मुझे अकिंचन, उसकी खातिर क्यों उजाडूँ मै अपना ही घर ||
न आते न बुलाते न चिट्ठी- पत्तर , हाल- हवाल न पूछें न ही लेते कोई खबर | मैं लजालू क्या बतलाऊँ, कितनी उनकी चाह, स्वाद खून का लगा शेरनी भूखी रखी घर ||
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