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पुरुष सांड है प्यार है उसका जिस्मों की थर-थर , औरत गाय है उसकी प्रीत में होता बहुत सबर | बीज गरब में धारण करती, रक्त से करती सिंचन , पुरुष बीज दाल कर केवल उसे बिठाता घर |
औरत ज़ात तो कैद पड़ी है हर घर के अंदर, यह हालत अब नहीं रहेगी बहुत देर तक पर। जिस घर में वह कैदी बनती होती वह प्रलय, जिस घर रहती देवी बन कर बस बसता वह घर ||
यह प्रभात की बेला लौ के अधखुले है दर , आद्य कुंवारी को घूँघट खुलने का रहता डर | देखे मुझे जाने क्या बोली मारे मेरा कन्त, इसी लिए शर्माती आती हु अपने घर
वे योद्धा थे, ज़ालिम थे वे सब है मुझे खबर , ज़ुल्म किये मेरे पुरखों ने कैसे बेटियों पर | वंशावली दिखाते अपनी होती मुझे ग्लानि , धिक वीरता, दफनाते नवजात बेटियां घर ||
खीझ न मेरी अम्मा न तू ऐसे रूठा कर , बतलाता हूँ कहाँ रहा मई फिरता यूँ आखिर | एक गौरेया घर थी बुनती उसको झाड़ा हैरान , रहा देखता देर लगी यूँ मुझे लौटते घर ||
एक पण्डितायन बाली विधवा उसका भी था घर, उसके तन की तपन-जलन अब दूर न होती पर | घर वह उस अभोल का दमघोटूं एक जेल, तभी कहूं मई तोड़ ज़ंजीराज नया बसा ले घर ||
कुड़ी एक गावँ बगूने की रूपवती चंचल, उसके रूप-अनूप पे जाकर अटकी मेरी नज़र | देख के उसके दिल खिल उठता रखूँ उसको पास, जब तक जीवन तब तक होगी प्रीत हमारा घर ||
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