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Back to Ghar verse
अपने आप को समझ रहा था मैं बहुत बहादुर, अकड़ गया सब तोड़, हवा का इक झोंका आकर | तन के नॉट का छुट्टा लेने निकला मैं बाजार , नॉट वह मेरा जाली निकला उजड़ा मेरा घर ||
दानी चतुर पांखडी करते दान बहुत मगर, वक़्त पड़े तो मूत्र न पाते ज़ख्मो के ऊपर | सोचें यदि यह दान से उनके पाप मिटेंगे सारे , परमेश्वर से कब भूला है साथी किसी का घर ||
वे योद्धा थे, ज़ालिम थे वे सब है मुझे खबर , ज़ुल्म किये मेरे पुरखों ने कैसे बेटियों पर | वंशावली दिखाते अपनी होती मुझे ग्लानि , धिक वीरता, दफनाते नवजात बेटियां घर ||
यहाँ बिकाऊ हर वस्तु है गिरजे और मंदिर, बेचने आया मैं भी अपना रोटी खातिर घर | पर यह मेरी पत न माने करती मिन्नतें-शिकवे, रोटी और कपड़े की खातिर भाई बेच न घर ||
रम न दौलत-सम्पत्ति में इनके लिए ना लड़, पहले खर्च कमाई कर के फिर आराम से मर। दौलत व जायदाद की खातिर लड़ते सगे-सहोदर, इस कारण धन जोड़ ना ज़्यादा, मुफ़्लिस कर ले घर ||
जीवन कोहलू-घर मानव का इन्सा है ‘डंगर’, और काल के खाल-खींचते , ज़ालिम है हंटर | बहुत झमेले , बहुत बखेड़े , जीवन के दिन चार , उखड़ी सांस , न घास मयस्सर , पानी भी न घर ||
बहुत मिला धन कुछ लोगो को मिला ना चैन मगर , चोर – बाजारी के कारण ही मन में समाया डर मखमल के गद्दों पर भी न आती नींद उन्हें , चोर यदी मन में आ बैठे नरक बने है घर ||
झूठ , फरेब ,होड़, षड़यंत्र होते हर दफ्तर, खींचातानी, ताक-झांक, हेरा-फेरी और डर | यह कूड़ा गर घर ना लाओ, रखो इससे पाक, छोटे-बड़े कुशल खुश होकर रहते ऐसे घर |
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