Back to Ghar verse
एक टुकड़ा मैं रोटी मांगू सोने से बस नुक्कड़ , इक पल मांगू मुस्काने को , इस धरती के ऊपर | रोने का एक पहर मैं मांगू , लोटा एक शराब, ओक से रह-रह पीड़ा चलके , यही है जीवन घर ||
करले खर्च कमाई साड़ी जीवन है नश्वर , मिटटी की काया मिलनी है मिटटी के अंदर | नहीं रहेंगे गीत गवैये ना दौलत ना आस , तुझको भी माटी होना है माटी होगा घर ||
खाली रूह है तेरी टेड़े जीने के औज़ार , सुन्दर-सा लिबास पहन ले रंग ले तू वस्त्र | आँखों को चुंधियाने वाली लौ ज़रा-सी ले ले , दे अपने अंधियारे तन को जिल जिल करता घर ||
मै पागल था दुनिया ने भी समझा , की न खातिर, मैंने भी सम्मान दिया न , किया न उसका आदर | देता क्या आदर उसको जो समझे मुझे अकिंचन, उसकी खातिर क्यों उजाडूँ मै अपना ही घर ||
एक ओर महापुरुष विराजे दुनिया के अंदर, ओर दूसरी तरफ जुगाली करते बैठे जिनावर | यह मानुष रस्सी का सेतु इस खाई के ऊपर , पल भर न निश्चित हो पाए कहाँ है उसका घर ||
किसी ने पूछा कितना अनुभव कितनी तेरी उम्र , अभी किया न लेखा-जोखा हुई बहुत गड़बड़ | मानव उमरे ही गिनता है उस पल जब के फिर , कुछ न गिनने को बचता है बैठ अकेले घर ||
छड़ी बलूत की हाथ में मास्टर जी आते लेकर, हमने सबक न याद किया है हम तो है निडर | घर पहुंचो तो याद न रहते मास्टर और स्कूल, नयी ही दुनिया हो जाती है अपना कच्चा घर ||
हो अगर ना दिल मानव का निर्भय और निडर , तो मानवता खतरे में है मुझको लगता डर | किस खातिर यह घर-चौबारे, लुटे जो अपनी लाज, तोड़ो ऐसे महल-मीनारे , फूंको ऐसे घर ||
इच्छाओं का त्याग करूँगा, प्रण किया अक्सर, इसी तरह यह प्रन भी मेरा है तो इच्छा, पर | अर्थ यह गहरे शब्दों के, मकड़जाल हैं बनते, घर को जब त्यागो तब बनती यही लालसा घर ||
मानव के कर्मो का लेख होता है आखिर, स्वर्ग के मुंशी तब कहते है प्राणी देर न कर| जितनी देर करो वो उतनी ‘सुरगी घटाते , सो बेहतर है रोज़ बैठकर लेखा करले घर ||
प्यासा मन तो बन जाता है फौलादी औज़ार , खोजी खोजें खोज खोज कर जान खुरदुरी कर | इसी तरह फिर सच्चे खोजी ढूंढे जीवन-सार , प्यास बुझाते और बनवाते वह फौलादी घर ||
घर की शोभा बने गृहस्ती और उसके अंदर आशाओं के बीजों से ही फूटे प्रेमांकुर | यह है क्यारी तू माली है सींच गुढ़ाई कर, मधुर सुवासित गुलदस्तों से सजेगा तेरा घर ||
शौक अनोखा पाला है गर मन मंदिर के अंदर, साध बना लो उसको अपनी सब साधों से ऊपर | भूख और लोभ को दिल से त्यागो, उसकी राह ना छोड़ो, मिट जाये हस्ती तेरी या उजड़े तेरा घर ||
भाव अभी न देहके पूरे मन न हो कातर, तपन और भड़केगी पीड़ा डालेगी लंगर | पीड़ा सही नहीं जाती तो कह दो मन की बात, मैं भेजूँ अनमोल उमीदें किसी और के घर ||
चल रे मन आ सुनें कहीं जा चिड़ियों की फुर-फुर, जन्म -मरण के झंझट भूलें कड़वे और बे-सुर | मस्त हुलारे लेकर मनवा झूले झूला आज , इन्ही सुहानी खुशियों में संग रंग ले अपना घर ||
जीने का क्यों मोह है इतना, करता व्यर्थ फ़िक्र, मिलोगे दाता जब तुम हमसे करेंगे लाख शुक्कर। शुक्र मनाऊं अमर नहीं है यहाँ जीव निर्जीव, थकी-हांफती नदिया जा मिलती है सागर घर ||
ईश्वर ने है दिए रात को अनगिन नयन हज़ार, जब डूबे है सूरज दुनिया सो जाती अक्सर। लौ की प्यासी दुनिया को न मिलते प्रेम-सपन, लालटेन पाकर अँधियारा, जगमग करे है घर।|
यह मन पाखी उड़ता जाए , भले थके हो पर, उड़ते-उड़ते तन का चाहे बन जाये पिंजर | न ही उसका ठौर ठिकाना , न इसकी मंज़िल, लम्बी दिव्य उड़ाने पे निकला , पर न कोई घर ||
घाव भरवाने को आये है हम प्रेम के दर , बहुत यकी है आशाओं को , इस हाकिम के ऊपर | ज़ख्मो पर फाहे रखता है , कोमल प्रेमिल हाथ , हंसी-खेल , आलिंगन , चुम्बन गुड़गुड़ियो का घर ||
क्यों बुनते हो , सोचो लोगो, संकोची बुन्तर , कौन सा डर है तुम्हे सताता हुई है क्या गड़बड़ | मौत का इक दिन निश्चित है फिर क्यों मरते रोज़ , खौंफ निकालो मन से तो ही , निर्भय होगा घर ||
काम-रुपयों की सांगत मेँ , हुआ है डर-बेदर, मेरे लिए खुला डर किसका, कौन-सा मेरा गढ़ | किस के केश ढकेंगे मेरा नंग-मनंगा तन , किसके होंठ रंगेंगे मेरा यह मैला-सा घर ||
छलिया क्षितिज उम्मीद जगा कर डाले सौ चक्कर , छल मरीचिका और बनाती पीड़ा को दुःख कर | जलते-तपते मरुस्थलों मेँ इंसा चलता जाता , उफ़क की दूरी काम न होती आस न आती घर ||
मानुष सोचे अमर स्कीमें कुशल हैं कारीगर, चीलों जैसी मौत घूमती गगन में, भूले पर | ताक लगी रहती है जिसको-दीखे जो कमज़ोरी, मार झपट्टा ले जाती है खाली करती घर ||
जीवन एक पतंग की नांईं, छूती है अम्बर, परवाह नहीं जो मांझा देता चीरें हातों पर। कस के रख तू बिना ढील के, मांझा बहुत है तेज़, यदि लड़ाने पेंच चढ़ा कर लाने वापिस घर ||
हर आदत मकड़ी का जाला इसकी सख्त जकड़, निकल न पाता जो फंस जाता, इस जाले अंदर | जिस्म झिंझोड़े, उछालो-कूदो मुक्ति नहीं है मिलती, बड़ा ही जकडालू होता है मकड़ियों का घर ||
कविता को अब कहाँ मिलेंगे ऐसे बहते सरोवर, कालिदास और षैली ग़ालिब कविता स्रोत अमर। एक वियोगी नामक नादां, नए सुरों में खोया, बहने की तरकीबें सोचे बैठे-ठाले घर।।
हश्र क्या होगा तन का तेरे, तुझ पे है निर्भर, एक समय आता हो जाता जब बद से बदतर | पीड़ा की दौलत से तब भर लेना तुम तिजोरी, पीड़ा की बुनियाद पे बनता रसता-बसता घर ||
कल हमेशा कल ही रहता, कुछ तो सोच विचार, कल का भी कल होता आया रुकता नहीं सफर | कल पर जिसको टालो होता कभी न पूरा काम, घर को कल पर छोड़ेंगे तो नहीं बनेगा घर ||
दिन चढ़ते ही पंख पखेरू , मेहनतकश चाकर, जीने का संघर्ष है करते फिर कितने यह दिन-भर | सांझढ़ले जब हो जाते है थक कर चकनाचूर , थकन मिटाने दिन भर की वो वापस आते घर||
इंतज़ार के पल लगते हैं भारी वर्षों पर प्रति-पल भरता अनगिन चिंता ह्रदय के भीतर | मधुर-मिलन के साल बीतते आँख झपकते ही , इंतज़ार में तिल-तिल करके जलता अपना घर ||
‘राजपूत-स्कूल’ में पढ़ते ,जम्मू के अंदर बेली राम हुआ करते थे हिस्ट्री के मास्टर | ऐसा सबक पढ़ाया उन्होंने इस जीवन का सुन्दर भूला नहीं, तभी बन पाया दिव्य मेरा यह घर ||
जीवन तरसायेगा, कुचलेगा कब तक आखिर, मई वियोगी ज़िद है मेरी अड़ियल ज्यों खच्चर | चाबुक खून चुभन सहूँ पर न छोडूं यह ज़िद , घर बनाने आया हूँ तो,निश्चित बनेगा घर ||
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