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Back to Ghar verse
रूप नहीं मरता है हरगिज़ रहता है सदा अमर , चोला एक त्याग के पहने दूजे यह ‘बस्तर’ | माँ मृत्यु के बाद भी बेटी-रूप में जीवित रहती, रूप बदलता रहता ऐसे रहने हेतु घर ||
मानव क्या है ? बस मानव है – बोल गए पितर , समझ सका न कथन यह उनका मैं तो रत्ती-भर। सोचूं, बहुत चतुर थे उनकी बुनती समझ ना आई , उस बुनती के और अधिक उलझा बैठा वह ‘घर’ ||
इंद्रधनुष के झूले ने है चित्रित किया है अम्बर, इसका बनना वायु में जल-कण पर है निर्भर | इसी तरह जीवन में गर न बरसे प्रेम-फुहार , फीका-फीका लगने लगता महलों जैसा घर ||
हम आये थे इस दुनिया में बिन दौलत बिन ज़र , उम्र बिताई चिंताओं में रहे काँपते थर-थर। अंत में सत्य समझ यह आया सोच है यह बेकार , पुरखे गए, तो हम भी आखिर छोड़ेंगे यह घर ||
नैय्या है कमज़ोर और लहरें आई है ऊपर , धारा में है तेज़ नुकीली चट्टानें-पत्थर। घाट पे नर्तन करती पीड़ा, घुंगरुं उसके छनकें , आशाओं का मांझी , बोलो कैसे पहुँचे घर ||
उम्र कसौटी है रूह की घिस परखो इस पर , खालिस है या हुई मिलावट आ देखें अंतर। जीवन की कठनाई को गर अपनी मुश्किल माने , तब जाकर यह पूरा उतरे खरा कसौटी-घर ||
इच्छा, इच्छुक ऐसे जैसे युध और शस्त्र , इच्छुक हिट इच्छा होती है बहुत ज़रूरी पर | जब इच्छुक की गाडी में इच्छा का ईंधन न हो, गतिहीन चलने का केवल इच्छुक रहता घर ||
लोग कह रहे मैं जियूँगा सौ-सौ वर्षों भर, माथे की रेखाओं पर ही करता है निर्भर। पर मैं करूँ दुआएं चाहे दो पल जीवन पाऊँ , किन्तु हों मदमस्त सभी पल, मधुशाला हो घर ||
कहे वेदना कलाकार से सुन मेरे मित्र , निपट अकेली रेखाओं से बना रहा चित्र। तेरे चित्रों में जीवन की रंगत तब झलकेगी , जब मेरे हित खाली रखोगे तुम मन का घर ||
चिंता की रेखा छाए मानव के माथे पर, हर पल उसके मन में रहता भयभीति का डर | मौत से पहले उसे निगलता पशु बनैला बन, रसता -बसता हँसता-गाता जंगल बनता घर||
मानव अक्खड़ होते हुए भी होता बहुत चतुर, पड़े ज़रूरत तो कर लेता हृदय को पत्थर। इसकी जिजीविषा की महिमा है वेदों में वर्णित, वक्त पड़े तो त्याग दे बिन-झिजके यह अपना घर ||
मैं नौसिखिया, और कठिन है जीवन का सफर, मेरे बस में रूह क्या होगी, बस में नहीं है धड़ | मुझे ज़िंदगानी से ना नफरत ना प्यार, इसीलिए शायद है मेरा बिलकुल खाली घर ||
ना मैं मियाँ, राजपूत ना, ना पंडित ना ठक्कर, मेरी कोई जात नहीं, ना भोट ना मैं गुर्जर | नाम है धाकड़,काम है धाकड़, मेरी राह भी धाकड़, इस दो-मुंही दुनिया अंदर कोई न मेरा घर ||
जीवन तरसायेगा, कुचलेगा कब तक आखिर, मई वियोगी ज़िद है मेरी अड़ियल ज्यों खच्चर | चाबुक खून चुभन सहूँ पर न छोडूं यह ज़िद , घर बनाने आया हूँ तो,निश्चित बनेगा घर ||
‘राजपूत-स्कूल’ में पढ़ते ,जम्मू के अंदर बेली राम हुआ करते थे हिस्ट्री के मास्टर | ऐसा सबक पढ़ाया उन्होंने इस जीवन का सुन्दर भूला नहीं, तभी बन पाया दिव्य मेरा यह घर ||
इंतज़ार के पल लगते हैं भारी वर्षों पर प्रति-पल भरता अनगिन चिंता ह्रदय के भीतर | मधुर-मिलन के साल बीतते आँख झपकते ही , इंतज़ार में तिल-तिल करके जलता अपना घर ||
दिन चढ़ते ही पंख पखेरू , मेहनतकश चाकर, जीने का संघर्ष है करते फिर कितने यह दिन-भर | सांझढ़ले जब हो जाते है थक कर चकनाचूर , थकन मिटाने दिन भर की वो वापस आते घर||
कल हमेशा कल ही रहता, कुछ तो सोच विचार, कल का भी कल होता आया रुकता नहीं सफर | कल पर जिसको टालो होता कभी न पूरा काम, घर को कल पर छोड़ेंगे तो नहीं बनेगा घर ||
हश्र क्या होगा तन का तेरे, तुझ पे है निर्भर, एक समय आता हो जाता जब बद से बदतर | पीड़ा की दौलत से तब भर लेना तुम तिजोरी, पीड़ा की बुनियाद पे बनता रसता-बसता घर ||
कविता को अब कहाँ मिलेंगे ऐसे बहते सरोवर, कालिदास और षैली ग़ालिब कविता स्रोत अमर। एक वियोगी नामक नादां, नए सुरों में खोया, बहने की तरकीबें सोचे बैठे-ठाले घर।।
हर आदत मकड़ी का जाला इसकी सख्त जकड़, निकल न पाता जो फंस जाता, इस जाले अंदर | जिस्म झिंझोड़े, उछालो-कूदो मुक्ति नहीं है मिलती, बड़ा ही जकडालू होता है मकड़ियों का घर ||
जीवन एक पतंग की नांईं, छूती है अम्बर, परवाह नहीं जो मांझा देता चीरें हातों पर। कस के रख तू बिना ढील के, मांझा बहुत है तेज़, यदि लड़ाने पेंच चढ़ा कर लाने वापिस घर ||
मानुष सोचे अमर स्कीमें कुशल हैं कारीगर, चीलों जैसी मौत घूमती गगन में, भूले पर | ताक लगी रहती है जिसको-दीखे जो कमज़ोरी, मार झपट्टा ले जाती है खाली करती घर ||
छलिया क्षितिज उम्मीद जगा कर डाले सौ चक्कर , छल मरीचिका और बनाती पीड़ा को दुःख कर | जलते-तपते मरुस्थलों मेँ इंसा चलता जाता , उफ़क की दूरी काम न होती आस न आती घर ||
काम-रुपयों की सांगत मेँ , हुआ है डर-बेदर, मेरे लिए खुला डर किसका, कौन-सा मेरा गढ़ | किस के केश ढकेंगे मेरा नंग-मनंगा तन , किसके होंठ रंगेंगे मेरा यह मैला-सा घर ||
क्यों बुनते हो , सोचो लोगो, संकोची बुन्तर , कौन सा डर है तुम्हे सताता हुई है क्या गड़बड़ | मौत का इक दिन निश्चित है फिर क्यों मरते रोज़ , खौंफ निकालो मन से तो ही , निर्भय होगा घर ||
घाव भरवाने को आये है हम प्रेम के दर , बहुत यकी है आशाओं को , इस हाकिम के ऊपर | ज़ख्मो पर फाहे रखता है , कोमल प्रेमिल हाथ , हंसी-खेल , आलिंगन , चुम्बन गुड़गुड़ियो का घर ||
यह मन पाखी उड़ता जाए , भले थके हो पर, उड़ते-उड़ते तन का चाहे बन जाये पिंजर | न ही उसका ठौर ठिकाना , न इसकी मंज़िल, लम्बी दिव्य उड़ाने पे निकला , पर न कोई घर ||
ईश्वर ने है दिए रात को अनगिन नयन हज़ार, जब डूबे है सूरज दुनिया सो जाती अक्सर। लौ की प्यासी दुनिया को न मिलते प्रेम-सपन, लालटेन पाकर अँधियारा, जगमग करे है घर।|
जीने का क्यों मोह है इतना, करता व्यर्थ फ़िक्र, मिलोगे दाता जब तुम हमसे करेंगे लाख शुक्कर। शुक्र मनाऊं अमर नहीं है यहाँ जीव निर्जीव, थकी-हांफती नदिया जा मिलती है सागर घर ||
चल रे मन आ सुनें कहीं जा चिड़ियों की फुर-फुर, जन्म -मरण के झंझट भूलें कड़वे और बे-सुर | मस्त हुलारे लेकर मनवा झूले झूला आज , इन्ही सुहानी खुशियों में संग रंग ले अपना घर ||
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