Back to Ghar verse
जो आया है उसको जाना है , पूर्ण कर चक्कर, इक पल हँसना खीझ घडी- भर थोड़ा माल-ओ -जर | उसके बाद न सूरज होगा, ना होंगे तारे, कलमुंहें अंधियारे में काँपेगा थर -थर -घर ||
न आते न बुलाते न चिट्ठी- पत्तर , हाल- हवाल न पूछें न ही लेते कोई खबर | मैं लजालू क्या बतलाऊँ, कितनी उनकी चाह, स्वाद खून का लगा शेरनी भूखी रखी घर ||
प्रीत मचा देती है कैसी आंधी और झक्कड़, मैं न समझूँ प्यार- व्यार को मै नादां अनगढ़ | मुझे बता दो लिख कर, क़ैसे लिखते हैं चिट्ठी, ख़ुद डाकिया बन कर दूँगा चिट्ठी तेरे घर ||
कच्चा धागा प्रीत, कह गए रामधन कविवर, यही सूत जब कसने लगता देता लाख फ़िक्र | पया रामधन जी मुझ को दे दो ऐसी सीख, अगर बंधी न डोर प्रीत की कैसे बनेगा घर ||
जैसे झरने ढूंढे नदियां ,नदियां दूँढे सर, जैसे हवा आसमानों में खोजे निज दिलबर | कोई यहाँ नहीं एकाकी सभी हैं जोड़ीदार, प्रीत में फिर क्यों मिल न पाते तेरे मेरे घर ||
कुड़ी एक गावँ बगूने की रूपवती चंचल, उसके रूप-अनूप पे जाकर अटकी मेरी नज़र | देख के उसके दिल खिल उठता रखूँ उसको पास, जब तक जीवन तब तक होगी प्रीत हमारा घर ||
इच्छाओं का त्याग करूँगा, प्रण किया अक्सर, इसी तरह यह प्रन भी मेरा है तो इच्छा, पर | अर्थ यह गहरे शब्दों के, मकड़जाल हैं बनते, घर को जब त्यागो तब बनती यही लालसा घर ||
दर-दर भटकूँ पूर्व, पश्छिम,दक्षिण, और उत्तर, मुझसे कहीं छुपा रखे थे दाता ने अक्षर | गली-गली मैंन भटका, कोमल पंक्ति मिली ना एक, मिली अंततः मुझे अचानक खड़ी वो मेरे घर ||
अगर देखनी चाहो लीला प्रेम की , बनो निडर, डरते-डरते कदम न रखना प्रेम के इस मंदिर | लाज प्रेम की रखनी है तू इसे लहू से सींच , प्यार खून से रंगे न जब तक बनता नहीं है डर ||
प्रीत अगर है मुझसे सच्ची दुनिया से न डर , आओ रसमें तोड़ दें सारी , ले ये हाथ पकड़ | तू पौंछ ले आँसू अपने यजोपवीत मैं तोडूं, चिंता न कर हाथ थाम ले चल तू मेरे घर ||
ईश्वर ने है दिए रात को अनगिन नयन हज़ार, जब डूबे है सूरज दुनिया सो जाती अक्सर। लौ की प्यासी दुनिया को न मिलते प्रेम-सपन, लालटेन पाकर अँधियारा, जगमग करे है घर।|
सारी खुशियाँ,सोच, वासना प्रीत के हैं चाकर, इसके मेह्तर-वैद, संतरी सब इसके नौकर | कोई अगर लालसा जिगर जलाये वह भी इसकी दास, प्रीत है मलिका, चले हुकूमत इसकी है घर-घर ||
वह कहती महके है तन मेरा होंठ मेरे शक्कर, उस पर मुझे यकीन तभी करूँ उसका मई ज़िक्र। पूछ न मुझसे कैसे उसको इसका मिला सुराग, क्या बतलाऊँ इक दिन चोरी मिला मुझे था घर ||
कौन अचानक आ धमका है दिल काँपे थर थर , आहट किसके पैरों की है जो करती गड़बड़ | किसकी खुशबू कर जाती है आकर मस्त-मलंग , बैठ अकेले सोच रहा हूँ एकल मेरा घर ||
इसको चूम या फिर डांटे दुनिया पर निर्भर, इज़्ज़त दे हर्षित होकर या करे इसे दर-दर | मेरा सत और तप था जितना सुन्दर इसे बनाया , मै जैसा भी कारीगर था वैसा बना यह घर ||
तेरी नज़र मेँ तेज़ और तीखे और पैनी नश्तर , चुभते है जब तो रहता है इनका मुझे न डर | कसक सुहानी और मद- महकी यह देते मुझको , तभी इन्हे मै बिना निकले लेकर आया घर||
दिलो के बीच बिछोड़ा फैला , हो गये घर बंजर, खेल-तमाशे चुभते मन में बन ज़हरीले नश्तर| हंसी-ठहाके , पेंग -हिलोरे सब कुछ लगता फीका , जिस घर साजन तनहा छोड़े, दुःख का है वो घर ||
‘प्यार कृपण न, क्यों लगाए तू िक्कड़-दुक्कड़, अपरिमित है दौलत इसकी , क्या करना गिन कर | दिल इसका है शेरों जैसा , जान लुटा देता है , बाँहों मेँ अम्बर भरता है तभी तो इसका घर ||
घाव भरवाने को आये है हम प्रेम के दर , बहुत यकी है आशाओं को , इस हाकिम के ऊपर | ज़ख्मो पर फाहे रखता है , कोमल प्रेमिल हाथ , हंसी-खेल , आलिंगन , चुम्बन गुड़गुड़ियो का घर ||
काम-रुपयों की सांगत मेँ , हुआ है डर-बेदर, मेरे लिए खुला डर किसका, कौन-सा मेरा गढ़ | किस के केश ढकेंगे मेरा नंग-मनंगा तन , किसके होंठ रंगेंगे मेरा यह मैला-सा घर ||
आस सुरो की मारक-धाकड़ घेरे है मिल कर , पकड़ दुनाली चले शिकारी जब बोले तीतर | मौत के डर से कैसे कोई अपनी उमंगें छोड़े , ताल-सुरो का गाला जो घोंटे , पिंजरा बनता घर ||
कुड़ी वह गांव बगूने की रूपवती चंचल, उसके रूप अनूप पे जाके अटकी मेरी नज़र | देख के उसको दिल खिल उठता रखूं उसको पास , जब तक जीवन तब तक होगी प्रीत हमारा घर
खीझ न मेरी अम्मा न तू ऐसे रूठा कर , बतलाता हूँ कहाँ रहा मई फिरता यूँ आखिर | एक गौरेया घर थी बुनती उसको झाड़ा हैरान , रहा देखता देर लगी यूँ मुझे लौटते घर ||
दिन चढ़ते ही पंख पखेरू , मेहनतकश चाकर, जीने का संघर्ष है करते फिर कितने यह दिन-भर | सांझढ़ले जब हो जाते है थक कर चकनाचूर , थकन मिटाने दिन भर की वो वापस आते घर||
प्रीत का मै देवालय बना कर आया था भीतर , आशाओं का डीप जला तू प्रीत बना मंदिर| पर एक देवी प्रीत की मलिका बोली कर्कश बोल, न ये मंदिर तेरी खातिर न हे तेरा घर ||
‘राजपूत-स्कूल’ में पढ़ते ,जम्मू के अंदर बेली राम हुआ करते थे हिस्ट्री के मास्टर | ऐसा सबक पढ़ाया उन्होंने इस जीवन का सुन्दर भूला नहीं, तभी बन पाया दिव्य मेरा यह घर ||
समय बहुत ही ज़ोरावर है , किन्तु मौके पर, रेखा कोई अनजानी सी , खींचो सीने पर | यही समय तो रास रचाता, देता है सुर ताल , प्रेम प्रीत से गीत बने फिर , लाड-प्यार से घर ||
रंगमंच जो घर मेँ हो तो फिर उसके अंदर, भेदभाव की दीमक लगती है और व्यापे डर | ऊपर-ऊपर प्रेम दिखावा भीतर विश्वास , इसी तरह जर्जर हो जाते है खड़े खड़े ही घर ||
मुझे खेद है क्यों उपलब्ध न मदिरा का सागर, क्यों नहीं गुल्ली-डंडा? क्यों न चिड़िया की चूर-मुर | इन कष्टों में डूबे मुझको याद सताए तेरी , फिर सोचूँ सब ठीक है जब तक तुम हो मेरे घर ||
तू मस्तानी, है मन-भानी रूप का तू सागर, ओक लगा के मांग रहा हूँ उंढेल दे तू गागर | मुझे रूप की तृषा, प्रेम-जल का हूँ मैं तो प्यासा, छलक रहा है रूप-तरंगित तेरा प्रेमिल घर ||
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