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Back to Ghar verse
छोटे बड़े हकूमत कर न पाते हैं इस पर , डाँटो लाख इसे जितना यह माने नहीं मगर। यह मतिहीन मूढ़ है इसके दास बड़े व छोटे , प्रेम की खातिर ऋषि-मुनि भी हुए बहुत बेघर ||
जब रूठे तू और फेर ले अपनी तीर-नज़र , सौ-सौ बिजली तड़तड़ करती गिरती है दिल पर। सीने में छाए बेचैनी जीवन मुझे चिढ़ाए , यूँ लगता है संशय में आंहें भरता यह घर ||
इंद्रधनुष के झूले ने है चित्रित किया है अम्बर, इसका बनना वायु में जल-कण पर है निर्भर | इसी तरह जीवन में गर न बरसे प्रेम-फुहार , फीका-फीका लगने लगता महलों जैसा घर ||
कब से आतुर बैठा हूँ मै तुझसे नेह लगाकर, और विलग न रह पाउँगा दशा हुई कातर | मुझे बता प्रियतमा ऐसे प्रेम निभेगा कब तक , छोड़ विछोह , आ चलो बनाएँ रास्ता-बस्ता घर ||
एक रोज़ पूजा करने मैं पहुंचा राजा के मंदिर, पंडित की बेटी से मेरी ऐसी लड़ी नज़र | मैं ठाकुर का बेटा देखूं इस दुनिया की रीत , जातपात के झंझट से हैट ढूँढूं अपना घर |
चलो सुनें चूं- चूं चूसों की मुर्गों की कुड़- कुड़ , मन किया तो मोल से लेंगे चूज़ा या ‘कुक्कड़’ | प्रीत भी दिल के टुकड़े कर के इसी तरह है खाती , दिल यह समझे प्रेम ही उसका सुखद सुहाना घर ||
मेरी पूजा के तोहफों का किया नहीं आदर, इसी लिए चिंता व्यापी है मेरे चित अन्दर | सपनों में तुम आकर मेरे , तंग बहुत करती हो, इसी तरह से किया है तुमने मेरे दिल में घर ||
आस-निराश न समझे मेरा मनवा लाल-बुझक्कड़, इस देती है मीठा चुम्बन दूजी जड़ती थप्पड़| इक झगड़ालू लड़ती, दूजी आलिंगन में बांधे , दोनों के जब तार जुड़े तब संभला रहता घर ||
वह क्या प्रीत-डगर का राही जिसके मन में डर, उससे प्रीत निभेगी कैसे सख्त न जिगर। दिल-ओ-जान की राह के कांटे चुनने पड़ते खुद, चुभन से डरते रहने पर कंटीला बनता घर ||
तू मस्तानी, है मन-भानी रूप का तू सागर, ओक लगा के मांग रहा हूँ उंढेल दे तू गागर | मुझे रूप की तृषा, प्रेम-जल का हूँ मैं तो प्यासा, छलक रहा है रूप-तरंगित तेरा प्रेमिल घर ||
मुझे खेद है क्यों उपलब्ध न मदिरा का सागर, क्यों नहीं गुल्ली-डंडा? क्यों न चिड़िया की चूर-मुर | इन कष्टों में डूबे मुझको याद सताए तेरी , फिर सोचूँ सब ठीक है जब तक तुम हो मेरे घर ||
रंगमंच जो घर मेँ हो तो फिर उसके अंदर, भेदभाव की दीमक लगती है और व्यापे डर | ऊपर-ऊपर प्रेम दिखावा भीतर विश्वास , इसी तरह जर्जर हो जाते है खड़े खड़े ही घर ||
समय बहुत ही ज़ोरावर है , किन्तु मौके पर, रेखा कोई अनजानी सी , खींचो सीने पर | यही समय तो रास रचाता, देता है सुर ताल , प्रेम प्रीत से गीत बने फिर , लाड-प्यार से घर ||
‘राजपूत-स्कूल’ में पढ़ते ,जम्मू के अंदर बेली राम हुआ करते थे हिस्ट्री के मास्टर | ऐसा सबक पढ़ाया उन्होंने इस जीवन का सुन्दर भूला नहीं, तभी बन पाया दिव्य मेरा यह घर ||
प्रीत का मै देवालय बना कर आया था भीतर , आशाओं का डीप जला तू प्रीत बना मंदिर| पर एक देवी प्रीत की मलिका बोली कर्कश बोल, न ये मंदिर तेरी खातिर न हे तेरा घर ||
दिन चढ़ते ही पंख पखेरू , मेहनतकश चाकर, जीने का संघर्ष है करते फिर कितने यह दिन-भर | सांझढ़ले जब हो जाते है थक कर चकनाचूर , थकन मिटाने दिन भर की वो वापस आते घर||
खीझ न मेरी अम्मा न तू ऐसे रूठा कर , बतलाता हूँ कहाँ रहा मई फिरता यूँ आखिर | एक गौरेया घर थी बुनती उसको झाड़ा हैरान , रहा देखता देर लगी यूँ मुझे लौटते घर ||
कुड़ी वह गांव बगूने की रूपवती चंचल, उसके रूप अनूप पे जाके अटकी मेरी नज़र | देख के उसको दिल खिल उठता रखूं उसको पास , जब तक जीवन तब तक होगी प्रीत हमारा घर
आस सुरो की मारक-धाकड़ घेरे है मिल कर , पकड़ दुनाली चले शिकारी जब बोले तीतर | मौत के डर से कैसे कोई अपनी उमंगें छोड़े , ताल-सुरो का गाला जो घोंटे , पिंजरा बनता घर ||
काम-रुपयों की सांगत मेँ , हुआ है डर-बेदर, मेरे लिए खुला डर किसका, कौन-सा मेरा गढ़ | किस के केश ढकेंगे मेरा नंग-मनंगा तन , किसके होंठ रंगेंगे मेरा यह मैला-सा घर ||
घाव भरवाने को आये है हम प्रेम के दर , बहुत यकी है आशाओं को , इस हाकिम के ऊपर | ज़ख्मो पर फाहे रखता है , कोमल प्रेमिल हाथ , हंसी-खेल , आलिंगन , चुम्बन गुड़गुड़ियो का घर ||
‘प्यार कृपण न, क्यों लगाए तू िक्कड़-दुक्कड़, अपरिमित है दौलत इसकी , क्या करना गिन कर | दिल इसका है शेरों जैसा , जान लुटा देता है , बाँहों मेँ अम्बर भरता है तभी तो इसका घर ||
दिलो के बीच बिछोड़ा फैला , हो गये घर बंजर, खेल-तमाशे चुभते मन में बन ज़हरीले नश्तर| हंसी-ठहाके , पेंग -हिलोरे सब कुछ लगता फीका , जिस घर साजन तनहा छोड़े, दुःख का है वो घर ||
तेरी नज़र मेँ तेज़ और तीखे और पैनी नश्तर , चुभते है जब तो रहता है इनका मुझे न डर | कसक सुहानी और मद- महकी यह देते मुझको , तभी इन्हे मै बिना निकले लेकर आया घर||
इसको चूम या फिर डांटे दुनिया पर निर्भर, इज़्ज़त दे हर्षित होकर या करे इसे दर-दर | मेरा सत और तप था जितना सुन्दर इसे बनाया , मै जैसा भी कारीगर था वैसा बना यह घर ||
कौन अचानक आ धमका है दिल काँपे थर थर , आहट किसके पैरों की है जो करती गड़बड़ | किसकी खुशबू कर जाती है आकर मस्त-मलंग , बैठ अकेले सोच रहा हूँ एकल मेरा घर ||
वह कहती महके है तन मेरा होंठ मेरे शक्कर, उस पर मुझे यकीन तभी करूँ उसका मई ज़िक्र। पूछ न मुझसे कैसे उसको इसका मिला सुराग, क्या बतलाऊँ इक दिन चोरी मिला मुझे था घर ||
सारी खुशियाँ,सोच, वासना प्रीत के हैं चाकर, इसके मेह्तर-वैद, संतरी सब इसके नौकर | कोई अगर लालसा जिगर जलाये वह भी इसकी दास, प्रीत है मलिका, चले हुकूमत इसकी है घर-घर ||
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