Back to Ghar verse
छोटे मन की लघु उड़ाने, बड़ों का ऊँचा अम्बर, छोटे दर्द के छोटे मरुस्थल बालू ज़रा सा भीतर। पीड़ा बड़ी के लिए चाहिए दिल भी बहुत विशाल , हर इक वस्तु माँगे अपने लिए मुनासिब घर ||
बिन तेरे मैं साथी, भटकूं दुनिया में दर-दर , मेरा कोई हमदम न था तरसा जीवन भर | चाहत-संशय-तर्क अनगिनत देह में रहे समाये , और नसों मैं हुए धमाके ढह गया मेरा घर |
चलो सुनें चूं- चूं चूसों की मुर्गों की कुड़- कुड़ , मन किया तो मोल से लेंगे चूज़ा या ‘कुक्कड़’ | प्रीत भी दिल के टुकड़े कर के इसी तरह है खाती , दिल यह समझे प्रेम ही उसका सुखद सुहाना घर ||
तर्क और तकरार का मन में भरा रेत-सागर, इस पर चलने से होता है मर जाना बेहतर। अगणित पड़ जाते हैं ऐसे रूह के ऊपर , डगर छोड़ कर रुकना पड़ता किसी-किसी के घर ||
सुन विलाप हीर का हरगिज़ ठट्ठा-हँसी न कर, बारिसशाह का किस्सा सुनकर सिसकी आहें भर | इक -दूजे को तरसें रहें, दुनिया करे अलग, शोक भरे दुखांत यह किस्से,शोकाकुल है घर ||
वे योद्धा थे, ज़ालिम थे वे सब है मुझे खबर , ज़ुल्म किये मेरे पुरखों ने कैसे बेटियों पर | वंशावली दिखाते अपनी होती मुझे ग्लानि , धिक वीरता, दफनाते नवजात बेटियां घर ||
सारवान ने बाँध सभी कुछ ठूस लिए ‘त्रंगड़’, मुट्ठी भर न भूसा छोड़ा ऊँट के लिए मगर | हर पल इसी कहानी को दुहराते आए लोग , हलवाहे की मेहनत जाती साहूकार के घर ||
सबको एक सामान धरा पर देता परमेसर, राजा रंक जिनवर पंछी, निर्बल ज़ोरावर | चरसी और नशेड़ी को भी देता दिन प्रतिदिन, चौबीस घंटे भेदभाव न उसके लंगर-घर ||
इंतज़ार के पल लगते हैं भारी वर्षों पर प्रति-पल भरता अनगिन चिंता ह्रदय के भीतर | मधुर-मिलन के साल बीतते आँख झपकते ही , इंतज़ार में तिल-तिल करके जलता अपना घर ||
हश्र क्या होगा तन का तेरे, तुझ पे है निर्भर, एक समय आता हो जाता जब बद से बदतर | पीड़ा की दौलत से तब भर लेना तुम तिजोरी, पीड़ा की बुनियाद पे बनता रसता-बसता घर ||
जीवन दिया मुझे ब्रह्मा ने, पर जीवन देकर, सोच रहा है इसको भाते धरती और अम्बर | सोच रहा हूँ उससे क्या मैं वाद-विवाद में उलझूं, ब्रह्मा मस्त है अपने घर में, मैं व्याकुल अपने घर ||
यहाँ बिकाऊ हर वस्तु है गिरजे और मंदिर, बेचने आया मैं भी अपना रोटी खातिर घर | पर यह मेरी पत न माने करती मिन्नतें-शिकवे, रोटी और कपड़े की खातिर भाई बेच न घर ||
हर आदत मकड़ी का जाला इसकी सख्त जकड़, निकल न पाता जो फंस जाता, इस जाले अंदर | जिस्म झिंझोड़े, उछालो-कूदो मुक्ति नहीं है मिलती, बड़ा ही जकडालू होता है मकड़ियों का घर ||
रम न दौलत-सम्पत्ति में इनके लिए ना लड़, पहले खर्च कमाई कर के फिर आराम से मर। दौलत व जायदाद की खातिर लड़ते सगे-सहोदर, इस कारण धन जोड़ ना ज़्यादा, मुफ़्लिस कर ले घर ||
छलिया क्षितिज उम्मीद जगा कर डाले सौ चक्कर , छल मरीचिका और बनाती पीड़ा को दुःख कर | जलते-तपते मरुस्थलों मेँ इंसा चलता जाता , उफ़क की दूरी काम न होती आस न आती घर ||
आस सुरो की मारक-धाकड़ घेरे है मिल कर , पकड़ दुनाली चले शिकारी जब बोले तीतर | मौत के डर से कैसे कोई अपनी उमंगें छोड़े , ताल-सुरो का गाला जो घोंटे , पिंजरा बनता घर ||
दिलो के बीच बिछोड़ा फैला , हो गये घर बंजर, खेल-तमाशे चुभते मन में बन ज़हरीले नश्तर| हंसी-ठहाके , पेंग -हिलोरे सब कुछ लगता फीका , जिस घर साजन तनहा छोड़े, दुःख का है वो घर ||
शिकार यार बनाया झेले ज़हरीले खंजर , दिल का मॉस खिलाया उसके टुकड़े टुकड़े कर| पर उसने ये चुग्गा चुग कर ऐसी भरी उड़ान, खेत पराये जाकर बैठा, बैठा दूजे घर ||
प्रीत लड़ी जो टूटे उसमें गांठ लगा ले, पर, धागा फिर भी जुड़ है गांठ ना जाए पर | कड़वे बोल लगाते आए दिल पे गहरे घाव , दुःख की बारिश में निश्चित ही टपके ऐसा घर ||
मेरे प्यार को नज़र लगाती देखे देखे बितर-बितर , दुनिया मुझको कुचल-कुचल कर करती है गोबर | मैं गोबर यह लेकर अक्सर लेपूं वो दीवार , जिस जगह पे टंगी है तेरी फोटो मेरे घर ||
मज़दूर के पैसे लेके जाता ठेके पर, घर आकर फिर गर्जन करता यह कंजरी का घर | प्रेत नशा, न दिखते उसको बच्चे भूखे-प्यासे, घर घोंसला होता है जो समझे उसको घर ||
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