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मानव क्या है ? बस मानव है – बोल गए पितर , समझ सका न कथन यह उनका मैं तो रत्ती-भर। सोचूं, बहुत चतुर थे उनकी बुनती समझ ना आई , उस बुनती के और अधिक उलझा बैठा वह ‘घर’ ||
मानव अक्खड़ होते हुए भी होता बहुत चतुर, पड़े ज़रूरत तो कर लेता हृदय को पत्थर। इसकी जिजीविषा की महिमा है वेदों में वर्णित, वक्त पड़े तो त्याग दे बिन-झिजके यह अपना घर ||
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