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व्यक्त मई जो भी करना चाहूँ संधे नहीं अक्षर, सोच तो दिव्या है मेरी किन्तु अक्षर है अक्खड़ | माँ बोली की सीमाओं ने कंठ किया अवरुद्ध , भीतर कैसे जॉन यह है तालाबंद इक घर |
एक दिन मई दुखियारा पहुंचा शिवजी के मंदिर , मगन खड़ा था शिव-अर्चन में साधु एक्कड़ | मई बोलै विपता का मारा सीख दीजिये कुछ , बोलै वह, क्यों आये यहाँ पर तेरा मंदिर घर ||
मंदिर मस्जिद और गिरजों में उमड़े जन के लष्कर, पाप कमाई बख्षाने को आते हैं अक्सर। वहम उन्हें है धोखे से ‘वो’ बन जाएगा मूर्ख, सब का लेखा यहाँ पे रहता यह अल्लाह का घर।।
ले यह भेंट और दे चरणामृत दाता मेरे ठाकुर, मैं चढ़ावा लेकर आया अपनी कविता ‘घर’ | ना मैं लाया भेंट रूपया ना ही मांगू दौलत, मेरी भेंट यह लेकर बाँट आना घर-घर ||
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