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तर्क और तकरार का मन में भरा रेत-सागर, इस पर चलने से होता है मर जाना बेहतर। अगणित पड़ जाते हैं ऐसे रूह के ऊपर , डगर छोड़ कर रुकना पड़ता किसी-किसी के घर ||
माथे की तू पोंछ ले तू भृकुटि, चेहरे जऐ संवर, क्रुद्ध रूप यह देख तुम्हारा, सेहमा सारा घर। नहीं भूलना सीखे यह मेरी ‘खींचे रखना डोर’, प्यार और अनुशासन ही मिल कर सुखी बनाते घर ||
मानुष इक दिन करने लगा था अल्लाह से अकड़, कहे मैं सब से सार को जानूं, मैं ज्ञानी चातुर | अल्लाह पूछे क्या है तेरा बोलो मुझसे रिश्ता, तब मानुष सर नीचे कर के आया वापिस घर ||
मेरे प्यार को नज़र लगाती देखे देखे बितर-बितर , दुनिया मुझको कुचल-कुचल कर करती है गोबर | मैं गोबर यह लेकर अक्सर लेपूं वो दीवार , जिस जगह पे टंगी है तेरी फोटो मेरे घर ||
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