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अपने आप को समझ रहा था मैं बहुत बहादुर, अकड़ गया सब तोड़, हवा का इक झोंका आकर | तन के नॉट का छुट्टा लेने निकला मैं बाजार , नॉट वह मेरा जाली निकला उजड़ा मेरा घर ||
रंगमंच जो घर मेँ हो तो फिर उसके अंदर, भेदभाव की दीमक लगती है और व्यापे डर | ऊपर-ऊपर प्रेम दिखावा भीतर विश्वास , इसी तरह जर्जर हो जाते है खड़े खड़े ही घर ||
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