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दानी चतुर पांखडी करते दान बहुत मगर, वक़्त पड़े तो मूत्र न पाते ज़ख्मो के ऊपर | सोचें यदि यह दान से उनके पाप मिटेंगे सारे , परमेश्वर से कब भूला है साथी किसी का घर ||
जब भी काँपे रूह तुम्हारी जपता जा हर-हर , अल्लाह-अल्लाह राम-राम कोई भेदभाव न कर | सच्चे मन से जो सोचोगे पूरी होगी बात, जिसमें चित्त लगाओ, वही रूह का घर ||
ईश्वर क्या है और मिलता कैसे है मै पूछूं अक्सर , पंडित मुल्ला और ग्रंथि देते न उतर | अपने स्थान को ऊँचा आंकी, यह बी कहते पर , ‘यह घर सारे आपके घर है, कोई न जिसका घर ||
एक दिन मई दुखियारा पहुंचा शिवजी के मंदिर , मगन खड़ा था शिव-अर्चन में साधु एक्कड़ | मई बोलै विपता का मारा सीख दीजिये कुछ , बोलै वह, क्यों आये यहाँ पर तेरा मंदिर घर ||
जीवन दिया मुझे ब्रह्मा ने, पर जीवन देकर, सोच रहा है इसको भाते धरती और अम्बर | सोच रहा हूँ उससे क्या मैं वाद-विवाद में उलझूं, ब्रह्मा मस्त है अपने घर में, मैं व्याकुल अपने घर ||
मानुष इक दिन करने लगा था अल्लाह से अकड़, कहे मैं सब से सार को जानूं, मैं ज्ञानी चातुर | अल्लाह पूछे क्या है तेरा बोलो मुझसे रिश्ता, तब मानुष सर नीचे कर के आया वापिस घर ||
तुलसी पिछवाड़े है रोपी आँगन बीच है ‘बड़’ मन के भीतर कपट भरा है दागा न उस से कर | ‘वह’ पहचाने सब को , जाने समझ हर इक चाल , तुलसी, पीपल, जप-तप से तो आता नहीं वह घर ||
परमेश्वर है एक इकाई , न नारी न नर, हर वास्तु में वास है उसका जानू ज़ोरावर | रूप न उसका, न गुण-वृति ,सीमा है बे-हद , उसकी हद को ढूंड न मूर्ख बैठे-बिठाये घर ||
जीने का क्यों मोह है इतना, करता व्यर्थ फ़िक्र, मिलोगे दाता जब तुम हमसे करेंगे लाख शुक्कर। शुक्र मनाऊं अमर नहीं है यहाँ जीव निर्जीव, थकी-हांफती नदिया जा मिलती है सागर घर ||
मंदिर मस्जिद और गिरजों में उमड़े जन के लष्कर, पाप कमाई बख्षाने को आते हैं अक्सर। वहम उन्हें है धोखे से ‘वो’ बन जाएगा मूर्ख, सब का लेखा यहाँ पे रहता यह अल्लाह का घर।।
ले यह भेंट और दे चरणामृत दाता मेरे ठाकुर, मैं चढ़ावा लेकर आया अपनी कविता ‘घर’ | ना मैं लाया भेंट रूपया ना ही मांगू दौलत, मेरी भेंट यह लेकर बाँट आना घर-घर ||
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