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‘कुंजों’ की निंदा होती है-देश है यह डुग्गर, छोटे पंखिन से सीमित है इनका सदा सफर | अन्य कोई भाषा न करती कुंजों का तिरिस्कार , इसी लिए की इन कुंजों के बहुत दूर है घर ||
हम आये थे इस दुनिया में बिन दौलत बिन ज़र , उम्र बिताई चिंताओं में रहे काँपते थर-थर। अंत में सत्य समझ यह आया सोच है यह बेकार , पुरखे गए, तो हम भी आखिर छोड़ेंगे यह घर ||
नहीं हो एक इकाई , मात्र हो तुम एक सिफर, गांठ-बांध ले बात यह मेरी करता चल सफर | राशि बनती एक इकाई शुन्य जो संग जुड़े , शुन्य अकेला उसकी तरह जिसका कोई न घर ||
मत कर निंदा कुंज की ये तो लम्बा करे सफर, विशराम-स्थल की खोज में चाहे थक जाते है पर| खास जगह ही बने घोंसला , ममता का बंधन , लम्बे सफर पे फिर उड़ जाना छोड़ के अपना घर
होनी तो होकर रहती है काहे करे फिकर, तभी कहूँ मैं प्यार तू करले, करले प्यार तू कर | मिलन ख़ुशी लेकर आएगा, देगा दुःख वियोग, घर न अपना कहलाएगा, खाली सूना घर ||
मत कर निंदा कुंज की यह तो लम्बा करे सफर, विश्राम-स्थल की खोज में चाहे थक जाते हैं पर | ख़ास जगह ही बुने घोंसले , ममता का बंधन , लम्बे सफर पे फिर उड़ जाना छोड़ के अपना घर ||
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