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यह प्रभात की बेला लौ के अधखुले है दर , आद्य कुंवारी को घूँघट खुलने का रहता डर | देखे मुझे जाने क्या बोली मारे मेरा कन्त, इसी लिए शर्माती आती हु अपने घर
ईश्वर ने है दिए रात को अनगिन नयन हज़ार, जब डूबे है सूरज दुनिया सो जाती अक्सर। लौ की प्यासी दुनिया को न मिलते प्रेम-सपन, लालटेन पाकर अँधियारा, जगमग करे है घर।|
खाली रूह है तेरी टेड़े जीने के औज़ार , सुन्दर-सा लिबास पहन ले रंग ले तू वस्त्र | आँखों को चुंधियाने वाली लौ ज़रा-सी ले ले , दे अपने अंधियारे तन को जिल जिल करता घर ||
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