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रूप तेरा यह रहने न दे सुधबुध रत्ती भर, तुझे बैठा कर मेरी सजनी सर और आँखों पर। ऐसा मेल-मिलाया मैंने शिव-गौरी भी उचके , जिस शब तूने रात गुज़री पहली मेरे घर ||
सुन विलाप हीर का हरगिज़ ठट्ठा-हँसी न कर, बारिसशाह का किस्सा सुनकर सिसकी आहें भर | इक -दूजे को तरसें रहें, दुनिया करे अलग, शोक भरे दुखांत यह किस्से,शोकाकुल है घर ||
तू मस्तानी, है मन-भानी रूप का तू सागर, ओक लगा के मांग रहा हूँ उंढेल दे तू गागर | मुझे रूप की तृषा, प्रेम-जल का हूँ मैं तो प्यासा, छलक रहा है रूप-तरंगित तेरा प्रेमिल घर ||
वह कहती महके है तन मेरा होंठ मेरे शक्कर, उस पर मुझे यकीन तभी करूँ उसका मई ज़िक्र। पूछ न मुझसे कैसे उसको इसका मिला सुराग, क्या बतलाऊँ इक दिन चोरी मिला मुझे था घर ||
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