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देह सूत है मन चरखा है या मन है सूत्र , यही पहेली हल करने में बीती जाए उम्र| देह-कताई चलती रहती क्या चरखा क्या सूत, गिन न पाया इस बुनती के सारी उम्र मैं ‘घर’ ||
यह मन पाखी उड़ता जाए , भले थके हो पर, उड़ते-उड़ते तन का चाहे बन जाये पिंजर | न ही उसका ठौर ठिकाना , न इसकी मंज़िल, लम्बी दिव्य उड़ाने पे निकला , पर न कोई घर ||
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