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हम आये थे इस दुनिया में बिन दौलत बिन ज़र , उम्र बिताई चिंताओं में रहे काँपते थर-थर। अंत में सत्य समझ यह आया सोच है यह बेकार , पुरखे गए, तो हम भी आखिर छोड़ेंगे यह घर ||
अपने आप को समझ रहा था मैं बहुत बहादुर, अकड़ गया सब तोड़, हवा का इक झोंका आकर | तन के नॉट का छुट्टा लेने निकला मैं बाजार , नॉट वह मेरा जाली निकला उजड़ा मेरा घर ||
दानी चतुर पांखडी करते दान बहुत मगर, वक़्त पड़े तो मूत्र न पाते ज़ख्मो के ऊपर | सोचें यदि यह दान से उनके पाप मिटेंगे सारे , परमेश्वर से कब भूला है साथी किसी का घर ||
रुपया-पैसा पास नहीं मैं गीतकार फक्कड़, मेरे पास न लिखने हेतु पेंसिल और पेपर। सोच रहा मैं पहले थोड़े फ़िल्मी गीत लिखूं, ताकि थोड़े पेंसिल-काग़ज़ ला पाऊँ मैं घर ||
रम न दौलत-सम्पत्ति में इनके लिए ना लड़, पहले खर्च कमाई कर के फिर आराम से मर। दौलत व जायदाद की खातिर लड़ते सगे-सहोदर, इस कारण धन जोड़ ना ज़्यादा, मुफ़्लिस कर ले घर ||
जो बेघर हैं उनके हित में इस दुनिया अंदर , अपना नहीं ठिकाना कोई ना ही अपना दर | करें चाकरी घर-घर जा कर जमा करें दौलत , आशा है तो केवल इतनी हो अपना भी घर ||
बहुत मिला धन कुछ लोगो को मिला ना चैन मगर , चोर – बाजारी के कारण ही मन में समाया डर मखमल के गद्दों पर भी न आती नींद उन्हें , चोर यदी मन में आ बैठे नरक बने है घर ||
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