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प्रीत का मै देवालय बना कर आया था भीतर , आशाओं का डीप जला तू प्रीत बना मंदिर| पर एक देवी प्रीत की मलिका बोली कर्कश बोल, न ये मंदिर तेरी खातिर न हे तेरा घर ||
सारी खुशियाँ,सोच, वासना प्रीत के हैं चाकर, इसके मेह्तर-वैद, संतरी सब इसके नौकर | कोई अगर लालसा जिगर जलाये वह भी इसकी दास, प्रीत है मलिका, चले हुकूमत इसकी है घर-घर ||
मै पागल था दुनिया ने भी समझा , की न खातिर, मैंने भी सम्मान दिया न , किया न उसका आदर | देता क्या आदर उसको जो समझे मुझे अकिंचन, उसकी खातिर क्यों उजाडूँ मै अपना ही घर ||
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