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व्यक्त मई जो भी करना चाहूँ संधे नहीं अक्षर, सोच तो दिव्या है मेरी किन्तु अक्षर है अक्खड़ | माँ बोली की सीमाओं ने कंठ किया अवरुद्ध , भीतर कैसे जॉन यह है तालाबंद इक घर |
झूठ , फरेब ,होड़, षड़यंत्र होते हर दफ्तर, खींचातानी, ताक-झांक, हेरा-फेरी और डर | यह कूड़ा गर घर ना लाओ, रखो इससे पाक, छोटे-बड़े कुशल खुश होकर रहते ऐसे घर |
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