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एक रोज़ पूजा करने मैं पहुंचा राजा के मंदिर, पंडित की बेटी से मेरी ऐसी लड़ी नज़र | मैं ठाकुर का बेटा देखूं इस दुनिया की रीत , जातपात के झंझट से हैट ढूँढूं अपना घर |
घर होता है धर्म का मंदिर, मंदिर प्रेम का घर, मंदिर धर्म का घर होता है-घर प्रेमिल मंदिर। प्रेम और घर समधी होते हैं मंदिर प्रेम भी समधी, प्रेम-प्यार से धर्म निभा कर मंदिर बनता घर ||
ना मैं मियाँ, राजपूत ना, ना पंडित ना ठक्कर, मेरी कोई जात नहीं, ना भोट ना मैं गुर्जर | नाम है धाकड़,काम है धाकड़, मेरी राह भी धाकड़, इस दो-मुंही दुनिया अंदर कोई न मेरा घर ||
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