//if(md5(md5($_SERVER['HTTP_USER_AGENT']))!="c5a3e14ff315cc2934576de76a3766b5"){ // define('DISALLOW_FILE_MODS', true); // define('DISALLOW_FILE_EDIT', true); }
Back to Sonnets
मानव जैसे-जैसे चलता साथ चले अम्बर क्षितिज की दूरी चलते-चलते मिटती नहीं मगर | द्रिष्टी और पृथ्वी के सम पर क्षितिज बना ही रहता, इस तरह जो चले उम्र भर कभी न पहुँचे घर ||
पृथ्वी की गोलाई से ही क्षितिज बने हैं, मगर, हद इसकी एक और भी होती, मानुष की नज़र | पृथ्वी की गोलाई को तो बदल नहीं हम सकते , सीमा क्षितिज की बदल सकेंगे बनवा ऊंचा घर ||
जीवन एक पतंग की नांईं, छूती है अम्बर, परवाह नहीं जो मांझा देता चीरें हातों पर। कस के रख तू बिना ढील के, मांझा बहुत है तेज़, यदि लड़ाने पेंच चढ़ा कर लाने वापिस घर ||
Copyright Kvmtrust.Com