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‘बस इतना ही?’ मुझे चिढ़ाए तू यह कह-कह कर, जितनी पीड़ा भोगी मेरी उतनी सख्त पकड़ | ढीली लगे तो सारे जग का दर्द संभाल के रखना और उषे ले रूह मेरी तू, आना नेरे घर ||
कठिन दिशा गर पकड़ी है तू रास्ता पूरा कर, वार्ना दुनिया कर देती है अपमानित दर-दर| मुश्किल को जो आसां करके घर को तुम लौटोगे, अभिनन्दन को मचल देगा हश-हश करता घर||
घर का लोभ तो होता है हर लालच से ऊपर, घर की खातिर दुनिया लेती दुनिया से टक्कर | खून-कत्ल होते भाइयों में इसके ही ख़ातिर , हर कोई इसकी रक्षा करता , ऐसी चीज़ है घर ||
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