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प्रीत का मै देवालय बना कर आया था भीतर , आशाओं का डीप जला तू प्रीत बना मंदिर| पर एक देवी प्रीत की मलिका बोली कर्कश बोल, न ये मंदिर तेरी खातिर न हे तेरा घर ||
एक दिन मई दुखियारा पहुंचा शिवजी के मंदिर , मगन खड़ा था शिव-अर्चन में साधु एक्कड़ | मई बोलै विपता का मारा सीख दीजिये कुछ , बोलै वह, क्यों आये यहाँ पर तेरा मंदिर घर ||
यहाँ बिकाऊ हर वस्तु है गिरजे और मंदिर, बेचने आया मैं भी अपना रोटी खातिर घर | पर यह मेरी पत न माने करती मिन्नतें-शिकवे, रोटी और कपड़े की खातिर भाई बेच न घर ||
ले यह भेंट और दे चरणामृत दाता मेरे ठाकुर, मैं चढ़ावा लेकर आया अपनी कविता ‘घर’ | ना मैं लाया भेंट रूपया ना ही मांगू दौलत, मेरी भेंट यह लेकर बाँट आना घर-घर ||
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