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एक ज़िद्दी और चंचल बालक चढ़ा जो पीपल पर , अम्मा जा तू, न लौटूंगा साँझ ढले तक घर | ठोकर लगी जो अनजाने में हुआ वह लहूलुहान , ज़ोर ज़ोर से रोते बोला ले चल अम्मा घर
मज़दूर के पैसे लेके जाता ठेके पर, घर आकर फिर गर्जन करता यह कंजरी का घर | प्रेत नशा, न दिखते उसको बच्चे भूखे-प्यासे, घर घोंसला होता है जो समझे उसको घर ||
मंदिर मस्जिद और गिरजों में उमड़े जन के लष्कर, पाप कमाई बख्षाने को आते हैं अक्सर। वहम उन्हें है धोखे से ‘वो’ बन जाएगा मूर्ख, सब का लेखा यहाँ पे रहता यह अल्लाह का घर।।
जो बेघर हैं उनके हित में इस दुनिया अंदर , अपना नहीं ठिकाना कोई ना ही अपना दर | करें चाकरी घर-घर जा कर जमा करें दौलत , आशा है तो केवल इतनी हो अपना भी घर ||
घर का लोभ तो होता है हर लालच से ऊपर, घर की खातिर दुनिया लेती दुनिया से टक्कर | खून-कत्ल होते भाइयों में इसके ही ख़ातिर , हर कोई इसकी रक्षा करता , ऐसी चीज़ है घर ||
बाबुल कहता है बैठ लाड़ली डोली के अंदर , यह वर तेरा , ईश्वर तेरा , वो घर अब मंदिर | बिटिया पूछे कब लौटूंगी बापू अपने घर , बाबुल बोले आज से बेटी वो ही तेरा घर ||
बहुत मिला धन कुछ लोगो को मिला ना चैन मगर , चोर – बाजारी के कारण ही मन में समाया डर मखमल के गद्दों पर भी न आती नींद उन्हें , चोर यदी मन में आ बैठे नरक बने है घर ||
प्रीत अगर है मुझसे सच्ची दुनिया से न डर , आओ रसमें तोड़ दें सारी , ले ये हाथ पकड़ | तू पौंछ ले आँसू अपने यजोपवीत मैं तोडूं, चिंता न कर हाथ थाम ले चल तू मेरे घर ||
शौक अनोखा पाला है गर मन मंदिर के अंदर, साध बना लो उसको अपनी सब साधों से ऊपर | भूख और लोभ को दिल से त्यागो, उसकी राह ना छोड़ो, मिट जाये हस्ती तेरी या उजड़े तेरा घर ||
घर की शोभा बने गृहस्ती और उसके अंदर आशाओं के बीजों से ही फूटे प्रेमांकुर | यह है क्यारी तू माली है सींच गुढ़ाई कर, मधुर सुवासित गुलदस्तों से सजेगा तेरा घर ||
झूठ , फरेब ,होड़, षड़यंत्र होते हर दफ्तर, खींचातानी, ताक-झांक, हेरा-फेरी और डर | यह कूड़ा गर घर ना लाओ, रखो इससे पाक, छोटे-बड़े कुशल खुश होकर रहते ऐसे घर |
अगर देखनी चाहो लीला प्रेम की , बनो निडर, डरते-डरते कदम न रखना प्रेम के इस मंदिर | लाज प्रेम की रखनी है तू इसे लहू से सींच , प्यार खून से रंगे न जब तक बनता नहीं है डर ||
प्यासा मन तो बन जाता है फौलादी औज़ार , खोजी खोजें खोज खोज कर जान खुरदुरी कर | इसी तरह फिर सच्चे खोजी ढूंढे जीवन-सार , प्यास बुझाते और बनवाते वह फौलादी घर ||
नेता करे एलेक्शनबाज़ी घर घर में जाकर , वोट मांगते लोगो से वह कुशल बिखरी बन कर | पर जब कुर्सी मिल जाए तो भूलें कॉल करार , मिलने जायो तो समय न देवे न दफ्तर न घर. ||
मेरा भाग्य सराह रहा वो हाथ की रेखा पढ़ कर, फीस भरो तो बतलाता हूँ किस्मत का चक्कर | दिल करता है कह दूँ पंडित अपना भाग्य सम्भालो, फिर सोचूं कुछ चुग्गा लेकर उसे भी जाना घर ||
दर-दर भटकूँ पूर्व, पश्छिम,दक्षिण, और उत्तर, मुझसे कहीं छुपा रखे थे दाता ने अक्षर | गली-गली मैंन भटका, कोमल पंक्ति मिली ना एक, मिली अंततः मुझे अचानक खड़ी वो मेरे घर ||
मानव के कर्मो का लेख होता है आखिर, स्वर्ग के मुंशी तब कहते है प्राणी देर न कर| जितनी देर करो वो उतनी ‘सुरगी घटाते , सो बेहतर है रोज़ बैठकर लेखा करले घर ||
इच्छाओं का त्याग करूँगा, प्रण किया अक्सर, इसी तरह यह प्रन भी मेरा है तो इच्छा, पर | अर्थ यह गहरे शब्दों के, मकड़जाल हैं बनते, घर को जब त्यागो तब बनती यही लालसा घर ||
गंवई-देहाती जंग को जाते योद्धे यह निडर , देशभक्त, पर देश कौन-सा, कुछ ना होश-खबर | जंग लगी है किस कारणवश इतना भी ना जाने, पर यह जाने उन्हें बचाने लड़ कर अपने घर ||
तीर्थ स्थान मिले बेगाने, हर एक तीर्थ पर, गर्व करें अपनी भक्ति पर बड़े-बड़े मंदिर | भक्त हैं एक-दूजे को देते पते-आशीषें-भेंटें, पर सब जाते सुख पाने को अपने-अपने घर ||
हो अगर ना दिल मानव का निर्भय और निडर , तो मानवता खतरे में है मुझको लगता डर | किस खातिर यह घर-चौबारे, लुटे जो अपनी लाज, तोड़ो ऐसे महल-मीनारे , फूंको ऐसे घर ||
एक दफा मैं निपट अकेला गया था सन्नासर , चुम्बक जैसे कोई खींच लोहे को ऊपर | सर इसका सूखा है लेकिन सुन्दर सहज नज़ारा, अगर कहीं तौफीक हुई तो यहाँ बनाऊंगा घर ||
एक पण्डितायन बाली विधवा उसका भी था घर, उसके तन की तपन-जलन अब दूर न होती पर | घर वह उस अभोल का दमघोटूं एक जेल, तभी कहूं मई तोड़ ज़ंजीराज नया बसा ले घर ||
इतराता है क्यों कर जातक मार नीरीह कबूतर, थप्पड एक पड़ा तो पल में होश उड़ेंगे फुर्र | और कहीं आज़माओ ताकत मत मारो मासूम, बाहर कहीं जो मिला भेड़िया, जाओगे रोते घर ||
छड़ी बलूत की हाथ में मास्टर जी आते लेकर, हमने सबक न याद किया है हम तो है निडर | घर पहुंचो तो याद न रहते मास्टर और स्कूल, नयी ही दुनिया हो जाती है अपना कच्चा घर ||
किसी ने पूछा कितना अनुभव कितनी तेरी उम्र , अभी किया न लेखा-जोखा हुई बहुत गड़बड़ | मानव उमरे ही गिनता है उस पल जब के फिर , कुछ न गिनने को बचता है बैठ अकेले घर ||
अरे शिकारी मार न पंछी इतना जुल्म न कर, फल भीषण है इस गुनाह का लागे तूने न डर | यह निर्बल,बलवान बलि वह देखे सारे पाप, हँसता- बसता क्यों उजाड़े तू किसी का घर ||
एक ओर महापुरुष विराजे दुनिया के अंदर, ओर दूसरी तरफ जुगाली करते बैठे जिनावर | यह मानुष रस्सी का सेतु इस खाई के ऊपर , पल भर न निश्चित हो पाए कहाँ है उसका घर ||
मै पागल था दुनिया ने भी समझा , की न खातिर, मैंने भी सम्मान दिया न , किया न उसका आदर | देता क्या आदर उसको जो समझे मुझे अकिंचन, उसकी खातिर क्यों उजाडूँ मै अपना ही घर ||
कुड़ी एक गावँ बगूने की रूपवती चंचल, उसके रूप-अनूप पे जाकर अटकी मेरी नज़र | देख के उसके दिल खिल उठता रखूँ उसको पास, जब तक जीवन तब तक होगी प्रीत हमारा घर ||
जैसे झरने ढूंढे नदियां ,नदियां दूँढे सर, जैसे हवा आसमानों में खोजे निज दिलबर | कोई यहाँ नहीं एकाकी सभी हैं जोड़ीदार, प्रीत में फिर क्यों मिल न पाते तेरे मेरे घर ||
मत कर निंदा कुंज की यह तो लम्बा करे सफर, विश्राम-स्थल की खोज में चाहे थक जाते हैं पर | ख़ास जगह ही बुने घोंसले , ममता का बंधन , लम्बे सफर पे फिर उड़ जाना छोड़ के अपना घर ||
कच्चा धागा प्रीत, कह गए रामधन कविवर, यही सूत जब कसने लगता देता लाख फ़िक्र | पया रामधन जी मुझ को दे दो ऐसी सीख, अगर बंधी न डोर प्रीत की कैसे बनेगा घर ||
प्रीत मचा देती है कैसी आंधी और झक्कड़, मैं न समझूँ प्यार- व्यार को मै नादां अनगढ़ | मुझे बता दो लिख कर, क़ैसे लिखते हैं चिट्ठी, ख़ुद डाकिया बन कर दूँगा चिट्ठी तेरे घर ||
न आते न बुलाते न चिट्ठी- पत्तर , हाल- हवाल न पूछें न ही लेते कोई खबर | मैं लजालू क्या बतलाऊँ, कितनी उनकी चाह, स्वाद खून का लगा शेरनी भूखी रखी घर ||
जो आया है उसको जाना है , पूर्ण कर चक्कर, इक पल हँसना खीझ घडी- भर थोड़ा माल-ओ -जर | उसके बाद न सूरज होगा, ना होंगे तारे, कलमुंहें अंधियारे में काँपेगा थर -थर -घर ||
खाली रूह है तेरी टेड़े जीने के औज़ार , सुन्दर-सा लिबास पहन ले रंग ले तू वस्त्र | आँखों को चुंधियाने वाली लौ ज़रा-सी ले ले , दे अपने अंधियारे तन को जिल जिल करता घर ||
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