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जीना दूभर हो जाए जब बन जा तू निडर , हिम्मत टूट गई तो समझो रहे न खोज-ख़बर। काम पे जाते बेटे को यह कहती निर्धन माँ, लौट के तुम आ जाना बेटा अपनी माँ के घर ||
बाहर हँसती भीतर-भीतर चुभते हैं खंजर, पुच-पुच करती चुम्मा देकर ख़ुश करती है पर। जीवन के संघर्ष और तिस पर घुन-खाया उद्यम, बात समझ न आए तो फिर ढहता जीवन-घर ||
हिम्मत टूटे तो ले डूबे जीवन जल-गहवर, हाथ और पैर चलाता जा तू सिर तू ऊपर कर | इस गहवर से बचना है तो बन जाओ तैराक , तभी घाट पे पहुँचोगे पाओगे अपना घर ||
दिन चढ़ते ही पंख पखेरू , मेहनतकश चाकर, जीने का संघर्ष है करते फिर कितने यह दिन-भर | सांझढ़ले जब हो जाते है थक कर चकनाचूर , थकन मिटाने दिन भर की वो वापस आते घर||
जीवन एक पतंग की नांईं, छूती है अम्बर, परवाह नहीं जो मांझा देता चीरें हातों पर। कस के रख तू बिना ढील के, मांझा बहुत है तेज़, यदि लड़ाने पेंच चढ़ा कर लाने वापिस घर ||
एक ओर महापुरुष विराजे दुनिया के अंदर, ओर दूसरी तरफ जुगाली करते बैठे जिनावर | यह मानुष रस्सी का सेतु इस खाई के ऊपर , पल भर न निश्चित हो पाए कहाँ है उसका घर ||
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