डोगरी की बदहाली पर है मुझ को बहुत फिकर, न कोई पढ़ता-सुनता न ही करता कोई ज़िकर। शायर इसके इक-दूजे से झिझके-ठिठके रहते, बिना दौड़ के बेदम होकर बैठे रहते घर ||
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