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मानुष सोचे अमर स्कीमें कुशल हैं कारीगर, चीलों जैसी मौत घूमती गगन में, भूले पर | ताक लगी रहती है जिसको-दीखे जो कमज़ोरी, मार झपट्टा ले जाती है खाली करती घर ||
मानुष इक दिन करने लगा था अल्लाह से अकड़, कहे मैं सब से सार को जानूं, मैं ज्ञानी चातुर | अल्लाह पूछे क्या है तेरा बोलो मुझसे रिश्ता, तब मानुष सर नीचे कर के आया वापिस घर ||
जीवन कोहलू-घर मानव का इन्सा है ‘डंगर’, और काल के खाल-खींचते , ज़ालिम है हंटर | बहुत झमेले , बहुत बखेड़े , जीवन के दिन चार , उखड़ी सांस , न घास मयस्सर , पानी भी न घर ||
छलिया क्षितिज उम्मीद जगा कर डाले सौ चक्कर , छल मरीचिका और बनाती पीड़ा को दुःख कर | जलते-तपते मरुस्थलों मेँ इंसा चलता जाता , उफ़क की दूरी काम न होती आस न आती घर ||
तुलसी पिछवाड़े है रोपी आँगन बीच है ‘बड़’ मन के भीतर कपट भरा है दागा न उस से कर | ‘वह’ पहचाने सब को , जाने समझ हर इक चाल , तुलसी, पीपल, जप-तप से तो आता नहीं वह घर ||
परमेश्वर है एक इकाई , न नारी न नर, हर वास्तु में वास है उसका जानू ज़ोरावर | रूप न उसका, न गुण-वृति ,सीमा है बे-हद , उसकी हद को ढूंड न मूर्ख बैठे-बिठाये घर ||
आस सुरो की मारक-धाकड़ घेरे है मिल कर , पकड़ दुनाली चले शिकारी जब बोले तीतर | मौत के डर से कैसे कोई अपनी उमंगें छोड़े , ताल-सुरो का गाला जो घोंटे , पिंजरा बनता घर ||
काम-रुपयों की सांगत मेँ , हुआ है डर-बेदर, मेरे लिए खुला डर किसका, कौन-सा मेरा गढ़ | किस के केश ढकेंगे मेरा नंग-मनंगा तन , किसके होंठ रंगेंगे मेरा यह मैला-सा घर ||
क्यों बुनते हो , सोचो लोगो, संकोची बुन्तर , कौन सा डर है तुम्हे सताता हुई है क्या गड़बड़ | मौत का इक दिन निश्चित है फिर क्यों मरते रोज़ , खौंफ निकालो मन से तो ही , निर्भय होगा घर ||
घाव भरवाने को आये है हम प्रेम के दर , बहुत यकी है आशाओं को , इस हाकिम के ऊपर | ज़ख्मो पर फाहे रखता है , कोमल प्रेमिल हाथ , हंसी-खेल , आलिंगन , चुम्बन गुड़गुड़ियो का घर ||
‘प्यार कृपण न, क्यों लगाए तू िक्कड़-दुक्कड़, अपरिमित है दौलत इसकी , क्या करना गिन कर | दिल इसका है शेरों जैसा , जान लुटा देता है , बाँहों मेँ अम्बर भरता है तभी तो इसका घर ||
दिलो के बीच बिछोड़ा फैला , हो गये घर बंजर, खेल-तमाशे चुभते मन में बन ज़हरीले नश्तर| हंसी-ठहाके , पेंग -हिलोरे सब कुछ लगता फीका , जिस घर साजन तनहा छोड़े, दुःख का है वो घर ||
यह मन पाखी उड़ता जाए , भले थके हो पर, उड़ते-उड़ते तन का चाहे बन जाये पिंजर | न ही उसका ठौर ठिकाना , न इसकी मंज़िल, लम्बी दिव्य उड़ाने पे निकला , पर न कोई घर ||
तेरी नज़र मेँ तेज़ और तीखे और पैनी नश्तर , चुभते है जब तो रहता है इनका मुझे न डर | कसक सुहानी और मद- महकी यह देते मुझको , तभी इन्हे मै बिना निकले लेकर आया घर||
इसको चूम या फिर डांटे दुनिया पर निर्भर, इज़्ज़त दे हर्षित होकर या करे इसे दर-दर | मेरा सत और तप था जितना सुन्दर इसे बनाया , मै जैसा भी कारीगर था वैसा बना यह घर ||
शिकार यार बनाया झेले ज़हरीले खंजर , दिल का मॉस खिलाया उसके टुकड़े टुकड़े कर| पर उसने ये चुग्गा चुग कर ऐसी भरी उड़ान, खेत पराये जाकर बैठा, बैठा दूजे घर ||
घर हौंसला होता है बच्चे मांगे बहियन पर, पंख मिले तो भरे उड़ाने बच्चे गिर फर-फर| बैठे अकेले अम्मा रोती , रहता बाप उदास, नीड बनाते बच्चे अपना, कर के सूना घर
जम्मू विश्वविद्यालय गया मैं , शिक्षा के मंदिर गीता बाइबिल मुझे ना दीखे-कहते प्रोफेसर | “काहे ढूंढ रहे हो यह सब, साइंस वगैरह पढ़ लो , मैं कहता अंधकार-में हो तुम रहकर बिजली-घर ||
होनी तो होकर रहती है काहे करे फिकर, तभी कहूँ मैं प्यार तू करले, करले प्यार तू कर | मिलन ख़ुशी लेकर आएगा, देगा दुःख वियोग, घर न अपना कहलाएगा, खाली सूना घर ||
कौन अचानक आ धमका है दिल काँपे थर थर , आहट किसके पैरों की है जो करती गड़बड़ | किसकी खुशबू कर जाती है आकर मस्त-मलंग , बैठ अकेले सोच रहा हूँ एकल मेरा घर ||
तेज़ बहुत है तेज़ बहुत है तेज़ बहुत खंजर खून हुआ हाँ खून हुआ हाँ खून हुआ भयंकर | चीर दे चाहे चीर दे पर अब रहा ना जाए अकेला , मरना है तो मरना मुझको आके तेरे घर ||
प्रीत लड़ी जो टूटे उसमें गांठ लगा ले, पर, धागा फिर भी जुड़ है गांठ ना जाए पर | कड़वे बोल लगाते आए दिल पे गहरे घाव , दुःख की बारिश में निश्चित ही टपके ऐसा घर ||
मेरे प्यार को नज़र लगाती देखे देखे बितर-बितर , दुनिया मुझको कुचल-कुचल कर करती है गोबर | मैं गोबर यह लेकर अक्सर लेपूं वो दीवार , जिस जगह पे टंगी है तेरी फोटो मेरे घर ||
शालीमार और चश्माशाही झरनों की झर-झर , पहली बार जो होंठ थे चूमे तेरे श्रीनगर | डल के भीतर एक शिकारी , बैठे मैं और तू , क्या कर बैठे,हमने चाहे कैसे-कैसे घर ||
वह कहती महके है तन मेरा होंठ मेरे शक्कर, उस पर मुझे यकीन तभी करूँ उसका मई ज़िक्र। पूछ न मुझसे कैसे उसको इसका मिला सुराग, क्या बतलाऊँ इक दिन चोरी मिला मुझे था घर ||
सारी खुशियाँ,सोच, वासना प्रीत के हैं चाकर, इसके मेह्तर-वैद, संतरी सब इसके नौकर | कोई अगर लालसा जिगर जलाये वह भी इसकी दास, प्रीत है मलिका, चले हुकूमत इसकी है घर-घर ||
जीवन क्या है ? घास का तिनका, मैं सोचूँ अक्सर, अथवा फूल क्यारी का है रंग बहुत सुन्दर | एक हवा के झोंके से ही बिखरे फूल और पात, जिस घर उगते फूल वो बनता अजब अनोखा घर ||
ईश्वर ने है दिए रात को अनगिन नयन हज़ार, जब डूबे है सूरज दुनिया सो जाती अक्सर। लौ की प्यासी दुनिया को न मिलते प्रेम-सपन, लालटेन पाकर अँधियारा, जगमग करे है घर।|
जीने का क्यों मोह है इतना, करता व्यर्थ फ़िक्र, मिलोगे दाता जब तुम हमसे करेंगे लाख शुक्कर। शुक्र मनाऊं अमर नहीं है यहाँ जीव निर्जीव, थकी-हांफती नदिया जा मिलती है सागर घर ||
नहीं बहा तू आँसू अविरल काँप नहीं थर-थर, तू ना जाने डर है किस का – अजब है तेरा डर | जग का अपना रोना, तेरा अपना है रोदन, तू अपने घर बैठ के रोता दुनिया अपने घर ||
आज तो बस है आज कहूँ मैं चल तू इसी डगर, इंतज़ार ही आया हिस्से कल ना आया मगर | आज को आज ही भोगूँगा कल की जाने कौन, कल न जाने किसका होगा आज है मेरा घर ||
चल रे मन आ सुनें कहीं जा चिड़ियों की फुर-फुर, जन्म -मरण के झंझट भूलें कड़वे और बे-सुर | मस्त हुलारे लेकर मनवा झूले झूला आज , इन्ही सुहानी खुशियों में संग रंग ले अपना घर ||
भाव अभी न देहके पूरे मन न हो कातर, तपन और भड़केगी पीड़ा डालेगी लंगर | पीड़ा सही नहीं जाती तो कह दो मन की बात, मैं भेजूँ अनमोल उमीदें किसी और के घर ||
मैं बांधूंगा सेहरा जिसमें आशाओं की झालर, बाराती बारात में मेरी वायदों के लश्कर | प्रीत के मैं पंडित बुलवाऊँ, मंत्र प्रेम के सुनने, रक्त का मैं सुन्दर सजा दूँ तेरे माँग-घर ||
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