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मानव क्या है ? बस मानव है – बोल गए पितर , समझ सका न कथन यह उनका मैं तो रत्ती-भर। सोचूं, बहुत चतुर थे उनकी बुनती समझ ना आई , उस बुनती के और अधिक उलझा बैठा वह ‘घर’ ||
पुरखों के हाथों से निर्मित तोड़े यह मंदिर, अब लोगों में सोच भोथरी समां गई भीतर | निज सभ्यता की निंदा का फैल चूका फैशन, रहते मौन जो पूछ ले कोई कौन-सा उनका घर ||
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