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आस-निराश न समझे मेरा मनवा लाल-बुझक्कड़, इस देती है मीठा चुम्बन दूजी जड़ती थप्पड़| इक झगड़ालू लड़ती, दूजी आलिंगन में बांधे , दोनों के जब तार जुड़े तब संभला रहता घर ||
लोग कह रहे मैं जियूँगा सौ-सौ वर्षों भर, माथे की रेखाओं पर ही करता है निर्भर। पर मैं करूँ दुआएं चाहे दो पल जीवन पाऊँ , किन्तु हों मदमस्त सभी पल, मधुशाला हो घर ||
मेरी जान ! बरसना है तो बरसो बन बौछार, झिजक, क्लेश मिटा दे सारे तू निर्भय होकर | घोल दे हर शंका, बह जाने दे हर संशय को, चलो डुबो दें कसक भरे, गहरे गहवर में घर ||
एक पैंतरा सही पड़ा तो इतना गर्व न कर , जाने उल्टा पड़े दूसरा उसका ध्यान तू कर | ख़ुशी-गम में, नहीं मनाना अधिक ख़ुशी या गम , समता और संतुलन से बनता सहज सजीला घर ||
क्यों बुनते हो , सोचो लोगो, संकोची बुन्तर , कौन सा डर है तुम्हे सताता हुई है क्या गड़बड़ | मौत का इक दिन निश्चित है फिर क्यों मरते रोज़ , खौंफ निकालो मन से तो ही , निर्भय होगा घर ||
‘प्यार कृपण न, क्यों लगाए तू िक्कड़-दुक्कड़, अपरिमित है दौलत इसकी , क्या करना गिन कर | दिल इसका है शेरों जैसा , जान लुटा देता है , बाँहों मेँ अम्बर भरता है तभी तो इसका घर ||
शौक अनोखा पाला है गर मन मंदिर के अंदर, साध बना लो उसको अपनी सब साधों से ऊपर | भूख और लोभ को दिल से त्यागो, उसकी राह ना छोड़ो, मिट जाये हस्ती तेरी या उजड़े तेरा घर ||