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बीते समय के खेत में दिखता मुझको ये अक्सर, घर बनाता बालक कोई ढेरी के ऊपर। मैं बचपन को याद करूँ तो अंतर समझ में आए, सपने वाला कैसा था और कैसा असली घर ||
रूप नहीं मरता है हरगिज़ रहता है सदा अमर , चोला एक त्याग के पहने दूजे यह ‘बस्तर’ | माँ मृत्यु के बाद भी बेटी-रूप में जीवित रहती, रूप बदलता रहता ऐसे रहने हेतु घर ||
मानव क्या है ? बस मानव है – बोल गए पितर , समझ सका न कथन यह उनका मैं तो रत्ती-भर। सोचूं, बहुत चतुर थे उनकी बुनती समझ ना आई , उस बुनती के और अधिक उलझा बैठा वह ‘घर’ ||
इंद्रधनुष के झूले ने है चित्रित किया है अम्बर, इसका बनना वायु में जल-कण पर है निर्भर | इसी तरह जीवन में गर न बरसे प्रेम-फुहार , फीका-फीका लगने लगता महलों जैसा घर ||
हम आये थे इस दुनिया में बिन दौलत बिन ज़र , उम्र बिताई चिंताओं में रहे काँपते थर-थर। अंत में सत्य समझ यह आया सोच है यह बेकार , पुरखे गए, तो हम भी आखिर छोड़ेंगे यह घर ||
कल तक पत्ते हरे भरे थे आज लगी पतझर , कब तक हरित की प्रतीक्षा में रहोगे यूँ आतुर। पतझर आई है तो हरे भी लौटेंगे, रे मन, जीवन नाम गति का यूँ न बैठ बिसूरो घर ||
नैय्या है कमज़ोर और लहरें आई है ऊपर , धारा में है तेज़ नुकीली चट्टानें-पत्थर। घाट पे नर्तन करती पीड़ा, घुंगरुं उसके छनकें , आशाओं का मांझी , बोलो कैसे पहुँचे घर ||
उम्र कसौटी है रूह की घिस परखो इस पर , खालिस है या हुई मिलावट आ देखें अंतर। जीवन की कठनाई को गर अपनी मुश्किल माने , तब जाकर यह पूरा उतरे खरा कसौटी-घर ||
देह सूत है मन चरखा है या मन है सूत्र , यही पहेली हल करने में बीती जाए उम्र| देह-कताई चलती रहती क्या चरखा क्या सूत, गिन न पाया इस बुनती के सारी उम्र मैं ‘घर’ ||
इच्छा, इच्छुक ऐसे जैसे युध और शस्त्र , इच्छुक हिट इच्छा होती है बहुत ज़रूरी पर | जब इच्छुक की गाडी में इच्छा का ईंधन न हो, गतिहीन चलने का केवल इच्छुक रहता घर ||
लोग कह रहे मैं जियूँगा सौ-सौ वर्षों भर, माथे की रेखाओं पर ही करता है निर्भर। पर मैं करूँ दुआएं चाहे दो पल जीवन पाऊँ , किन्तु हों मदमस्त सभी पल, मधुशाला हो घर ||
कहे वेदना कलाकार से सुन मेरे मित्र , निपट अकेली रेखाओं से बना रहा चित्र। तेरे चित्रों में जीवन की रंगत तब झलकेगी , जब मेरे हित खाली रखोगे तुम मन का घर ||
चिंता की रेखा छाए मानव के माथे पर, हर पल उसके मन में रहता भयभीति का डर | मौत से पहले उसे निगलता पशु बनैला बन, रसता -बसता हँसता-गाता जंगल बनता घर||
बाहर हँसती भीतर-भीतर चुभते हैं खंजर, पुच-पुच करती चुम्मा देकर ख़ुश करती है पर। जीवन के संघर्ष और तिस पर घुन-खाया उद्यम, बात समझ न आए तो फिर ढहता जीवन-घर ||
मैं नौसिखिया, और कठिन है जीवन का सफर, मेरे बस में रूह क्या होगी, बस में नहीं है धड़ | मुझे ज़िंदगानी से ना नफरत ना प्यार, इसीलिए शायद है मेरा बिलकुल खाली घर ||
मेरी जान ! बरसना है तो बरसो बन बौछार, झिजक, क्लेश मिटा दे सारे तू निर्भय होकर | घोल दे हर शंका, बह जाने दे हर संशय को, चलो डुबो दें कसक भरे, गहरे गहवर में घर ||
ना मैं मियाँ, राजपूत ना, ना पंडित ना ठक्कर, मेरी कोई जात नहीं, ना भोट ना मैं गुर्जर | नाम है धाकड़,काम है धाकड़, मेरी राह भी धाकड़, इस दो-मुंही दुनिया अंदर कोई न मेरा घर ||
हिम्मत टूटे तो ले डूबे जीवन जल-गहवर, हाथ और पैर चलाता जा तू सिर तू ऊपर कर | इस गहवर से बचना है तो बन जाओ तैराक , तभी घाट पे पहुँचोगे पाओगे अपना घर ||
जीवन तरसायेगा, कुचलेगा कब तक आखिर, मई वियोगी ज़िद है मेरी अड़ियल ज्यों खच्चर | चाबुक खून चुभन सहूँ पर न छोडूं यह ज़िद , घर बनाने आया हूँ तो,निश्चित बनेगा घर ||
कठिन दिशा गर पकड़ी है तू रास्ता पूरा कर, वार्ना दुनिया कर देती है अपमानित दर-दर| मुश्किल को जो आसां करके घर को तुम लौटोगे, अभिनन्दन को मचल देगा हश-हश करता घर||
‘राजपूत-स्कूल’ में पढ़ते ,जम्मू के अंदर बेली राम हुआ करते थे हिस्ट्री के मास्टर | ऐसा सबक पढ़ाया उन्होंने इस जीवन का सुन्दर भूला नहीं, तभी बन पाया दिव्य मेरा यह घर ||
एक दिन मई दुखियारा पहुंचा शिवजी के मंदिर , मगन खड़ा था शिव-अर्चन में साधु एक्कड़ | मई बोलै विपता का मारा सीख दीजिये कुछ , बोलै वह, क्यों आये यहाँ पर तेरा मंदिर घर ||
इंतज़ार के पल लगते हैं भारी वर्षों पर प्रति-पल भरता अनगिन चिंता ह्रदय के भीतर | मधुर-मिलन के साल बीतते आँख झपकते ही , इंतज़ार में तिल-तिल करके जलता अपना घर ||
दिन चढ़ते ही पंख पखेरू , मेहनतकश चाकर, जीने का संघर्ष है करते फिर कितने यह दिन-भर | सांझढ़ले जब हो जाते है थक कर चकनाचूर , थकन मिटाने दिन भर की वो वापस आते घर||
हश्र क्या होगा तन का तेरे, तुझ पे है निर्भर, एक समय आता हो जाता जब बद से बदतर | पीड़ा की दौलत से तब भर लेना तुम तिजोरी, पीड़ा की बुनियाद पे बनता रसता-बसता घर ||
जीवन एक पतंग की नांईं, छूती है अम्बर, परवाह नहीं जो मांझा देता चीरें हातों पर। कस के रख तू बिना ढील के, मांझा बहुत है तेज़, यदि लड़ाने पेंच चढ़ा कर लाने वापिस घर ||
मानुष सोचे अमर स्कीमें कुशल हैं कारीगर, चीलों जैसी मौत घूमती गगन में, भूले पर | ताक लगी रहती है जिसको-दीखे जो कमज़ोरी, मार झपट्टा ले जाती है खाली करती घर ||
छलिया क्षितिज उम्मीद जगा कर डाले सौ चक्कर , छल मरीचिका और बनाती पीड़ा को दुःख कर | जलते-तपते मरुस्थलों मेँ इंसा चलता जाता , उफ़क की दूरी काम न होती आस न आती घर ||
काम-रुपयों की सांगत मेँ , हुआ है डर-बेदर, मेरे लिए खुला डर किसका, कौन-सा मेरा गढ़ | किस के केश ढकेंगे मेरा नंग-मनंगा तन , किसके होंठ रंगेंगे मेरा यह मैला-सा घर ||
क्यों बुनते हो , सोचो लोगो, संकोची बुन्तर , कौन सा डर है तुम्हे सताता हुई है क्या गड़बड़ | मौत का इक दिन निश्चित है फिर क्यों मरते रोज़ , खौंफ निकालो मन से तो ही , निर्भय होगा घर ||
शिकार यार बनाया झेले ज़हरीले खंजर , दिल का मॉस खिलाया उसके टुकड़े टुकड़े कर| पर उसने ये चुग्गा चुग कर ऐसी भरी उड़ान, खेत पराये जाकर बैठा, बैठा दूजे घर ||
जीने का क्यों मोह है इतना, करता व्यर्थ फ़िक्र, मिलोगे दाता जब तुम हमसे करेंगे लाख शुक्कर। शुक्र मनाऊं अमर नहीं है यहाँ जीव निर्जीव, थकी-हांफती नदिया जा मिलती है सागर घर ||
चल रे मन आ सुनें कहीं जा चिड़ियों की फुर-फुर, जन्म -मरण के झंझट भूलें कड़वे और बे-सुर | मस्त हुलारे लेकर मनवा झूले झूला आज , इन्ही सुहानी खुशियों में संग रंग ले अपना घर ||
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