व्यक्त मई जो भी करना चाहूँ संधे नहीं अक्षर, सोच तो दिव्या है मेरी किन्तु अक्षर है अक्खड़ | माँ बोली की सीमाओं ने कंठ किया अवरुद्ध , भीतर कैसे जॉन यह है तालाबंद इक घर |
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