एक पण्डितायन बाली विधवा उसका भी था घर, उसके तन की तपन-जलन अब दूर न होती पर | घर वह उस अभोल का दमघोटूं एक जेल, तभी कहूं मई तोड़ ज़ंजीराज नया बसा ले घर ||
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