जीने का क्यों मोह है इतना, करता व्यर्थ फ़िक्र, मिलोगे दाता जब तुम हमसे करेंगे लाख शुक्कर। शुक्र मनाऊं अमर नहीं है यहाँ जीव निर्जीव, थकी-हांफती नदिया जा मिलती है सागर घर ||
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