मानुष सोचे अमर स्कीमें कुशल हैं कारीगर, चीलों जैसी मौत घूमती गगन में, भूले पर | ताक लगी रहती है जिसको-दीखे जो कमज़ोरी, मार झपट्टा ले जाती है खाली करती घर ||
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